________________
क्रान्ति का सिंहनाद / १४१
२. नारकीय जीव महान् कष्ट को सहता है, पर उसके शुद्धि अल्प होती है। ३. उच्च भूमिका का ध्यानी अल्प कष्ट को सहता है पर उसके शुद्धि महान् होती
४. सर्वोच्च देव अल्प कष्ट को सहता है और उसके शुद्धि भी अल्प होती है।
भगवान् ने कष्ट-सहन और शुद्धि के अनुबंध का प्रतिपादन नहीं किया। भगवान् ने गौतम के एक प्रश्न के उत्तर में कहा था - कष्ट के अधिक या अल्प होने का मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। मेरी दृष्टि में मूल्य है प्रशस्त शुद्धि का।२ ।
गौतम ने इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने का अनुरोध किया। तब भगवान् ने कहा -
'गौतम! दो वस्त्र हैं - एक कर्दमराग से रक्त और दूसरा खंजनराग से रक्त । इनमें से कौन-सा वस्त्र कठिनाई से साफ होता है और कौन-सा सरलता से?'
'भन्ते ! कर्दमराग से रक्त वस्त्र कठिनाई से साफ होता है।' _ 'गौतम! नारकीय जीव के बन्धन बहुत प्रगाढ़ होते हैं, इसलिए महान् कष्ट सहने पर भी उनके शुद्धि अल्प होती है।'
'भन्ते! खंजनराग से रक्त वस्त्र सरलता से साफ होता है।'
'गौतम! तपस्वी मुनि के बंधन शिथिल होते हैं, इसलिए उनके यत्-किंचित् कष्ट सहने से ही महान् शद्धि हो जाती है।'
'यह कैसे होती है, भन्ते?' 'गौतम! सूखी घास का पूला अग्नि में डालने पर क्या होता है?' 'भन्ते! वह शीघ्र ही भस्म हो जाता है।' 'गौतम! गर्म तवे पर जल-बिन्दु गिरने से क्या होता है?' 'भन्ते ! वह शीघ्र ही विध्वस्त हो जाता है।' 'गौतम! इसी प्रकार तपस्वी मुनि के बंधन-तंतु शीघ्र ही दग्ध और ध्वस्त हो जाते
__भगवान् ने श्रमणों की साधना पद्धति को विकसित किया और साथ-साथ अन्य तपस्वियों के साधना-पथ को परिष्कृत रूप में अपनाया। उनके परिष्कार का सूत्र था - अहिंसा। हिंसापूर्ण कष्ट सहने की परम्परा चल रही थी। भगवान् ने कष्ट सहने को सर्वथा अस्वीकार नहीं किया, किन्तु उसमें हिंसा के जो अंश थे, उन सबको अस्वीकार कर दिया। ___भगवान् ने कायक्लेश को तप के रूप में स्वीकार किया। पर उसका अर्थ शरीर को १. भगवई, ६।१५,१६,। २. भगवई, ६।१:से सेए जे पसत्थनिज्जराए । ३. भगवई,६।४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org