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१४० / श्रमण महावीर
उनकी साधना में तप बहिरंग साधन है, ध्यान अंतरंग साधन । उनका साधनापथ न केवल तपस्या से निर्मित होता है और न केवल ध्यान से। वह दोनों के सामंजस्य से निर्मित होता है । तपस्या के स्थान पर तपस्या और ध्यान के स्थान पर ध्यान । दोनों का अपना-अपना उपयोग।
उस समय कुछ तपस्वी अज्ञानपूर्ण तप करते थे। वे लोहे के कांटों पर सो जाते। उनका शरीर रक्त-रंजित हो जाता। कुछ तपस्वी जेठ की गर्मी में पंचाग्नि-तप तपते और कुछ सर्दी के दिनों में नदी के गहरे पानी में खड़े रहते। भगवान् ने इनको बाल-तपस्वी और वर्तमान जीवन का शत्रु घोषित किया।
यदि कष्ट सहना ही धर्म होता तो लोहे के कांटों पर सोने वाला तपस्वी वर्तमान जीवन का शत्रु कैसे होता?
एक बार गौतम ने पूछा - 'भन्ते! क्या शरीर को कष्ट देना धर्म है?' 'नहीं कह सकता कि वह धर्म है।' 'भंते! तो क्या वह अधर्म है?' 'नहीं कह सकता कि वह अधर्म है।' 'तो क्या है, भन्ते?'
"रोगी कड़वी दवा पी रहा है। क्या मैं कहूं कि वह अनिष्ट कर रहा है? ज्वर से पीड़ित मनुष्य स्निग्ध-मधुर भोजन खा रहा है। क्या मैं कहूं कि वह इष्ट कर रहा है?'
'दवा रोग की चिकित्सा है। मीठी दवा लेने से रोग मिटे तो कड़वी दवा लेना आवश्यक नहीं है। उससे न मिटे तो कड़वी दवा भी लेनी होती है।' ।
'स्निग्ध भोजन शरीर को पुष्ट करता है, पर ज्वर में वह शरीर को क्षीण करता है।' 'मैं शरीर को कष्ट देने को धर्म नहीं कहता हूं। मैं संस्कारों की शुद्धि को धर्म कहता
गौतम ने फिर पूछा – 'भन्ते! क्या ऐसा हो सकता है? - १. कष्ट महान् और शुद्धि भी महान्, २. कष्ट महान् और शुद्धि अल्प, ३. कष्ट अल्प और शुद्धि महान्। ४. कष्ट अल्प और शुद्धि अल्प।' भगवान् ने कहा - 'हो सकता है।' गौतम ने पूछा – कैसे हो सकता है, भन्ते?' भगवान् ने कहा
१. उच्च भूमिका का तपस्वी महान् कष्ट को सहता है और उसकी शुद्धि भी महान् होती है। १. दसवेआलियं, ९ । ३।६।
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