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________________ क्रान्ति का सिंहनाद / १३९ कामरूप के सुदूर अंचलों में विहार करने वाले मुनियों ने भगवान से प्रार्थना की - 'भन्ते! वाममार्ग के सामने हमारा संयम का स्वर प्रखर नहीं हो रहा है। हम क्या करें, भगवान् से मार्ग-दर्शन चाहते हैं।' भगवान् ने कहा - 'विषयों को धर्म के आसन से च्युत करके ही इस रोग की चिकित्सा की जा सकती है। जाओ, तुम जनता के सामने इस स्वर को प्रखर करो - 'पिया हुआ कालकूट विष अविधि से पकड़ा हुआ अस्त्र, नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विनाशकारी होता है विषय से जुड़ा हुआ धर्म।" ५. साधना-पथ का समन्वय सुख के प्रति सबका आकर्षण है। कष्ट कोई नहीं चाहता। पर सुख की उपलब्धि का मार्ग कष्टों से खाली नहीं है। कृषि की निष्पत्ति का सुख उनकी उत्पत्ति के कष्टों का परिणाम है। इस संसार का निसर्ग ही ऐसा है कि श्रम के बिना कुछ भी निष्पन्न नहीं होता। क्या आत्मा की उपलब्धि श्रम के बिना संभव है? यदि होती तो वह पहले ही हो जाती। फिर इस प्रश्न और उत्तर की अपेक्षा ही नहीं रहती। कुछ लोगों का मत है कि भगवान् महावीर ने साधना के कष्टपूर्ण मार्ग का प्रतिपादन किया। इसे मान लेने पर भी इतना शेष रह जाता है कि भगवान् की साधना में कष्ट साध्य भी नहीं है। उनकी साधना अथ से इति तक अहिंसा का अभियान है। हिंसा पर विजय पाना कोई सरल काम नहीं है। अनादिकाल से मनुष्य पर उसका प्रभुत्व है। उसे निरस्त करने में क्या कष्टों का आना सम्भव नहीं है? महावीर ने कब कहा कि तुम कष्टों को निमंत्रण दो। उन्होंने कहा - 'तुम्हारे अभियान में कष्ट आएं, उनका दृढ़तापूर्वक सामना करो।'२ __भगवान् ने स्वयं तप तपा, शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु संचित संस्कारों को क्षीण करने के लिए। भगवान् अनेकांत प्रवक्ता थे। वे कैसे कहते कि संस्कार-विलय का तप ही एकमात्र विकल्प है। उन्होंने ध्यान को तप से अधिक महत्व दिया। उनकी परम्परा का प्रसिद्ध सूत्र है - दो दिन का उपवास दो मिनट के ध्यान की तुलना नहीं कर सकता। १. उत्तरज्झयणाणि, २०।४४: विसंतु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसे व धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ॥ २. दसवेआलियं,८।२७: देहे दुक्खं महाफलं । २. दसराव धम्मो विसओवरलाइ सत्थं जह करावी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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