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________________ १३८/ श्रमण महावीर भगवान् ने इन दोनों के सामने स्याद्वाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उसका अर्थ ar- अनन्त-धर्मात्मक वस्तु को अनन्त दृष्टिकोण से देखना।। गौतम ने पूछा – 'भंते ! ये धार्मिक व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा क्यों करते हैं?' भगवान ने कहा - 'गौतम! जिनका दृष्टिकोण एकान्तवादी होता है, वे अपने ज्ञात वस्तु-धर्म को पूर्ण मान लेते हैं। दूसरों द्वारा ज्ञात वस्तु-धर्म उन्हें असत्य दिखाई देता है। इसलिए वे अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं।' 'भन्ते! क्या यह उचित है?' गौतम के इस प्रश्न पर भगवान् ने कहा - 'अपने अभ्युपगम की प्रशंसा करने वाले, दूसरों के अभ्युपगम की निन्दा करने वाले, विद्वान् होने का दिखावा करते हैं, वे बंध जाते हैं असत्य के नागपाश से। 'एकान्तग्राही तर्कों का प्रतिपादन करने वाले, धर्म और अधर्म के कोविद नहीं होते। वे दुःख से मुक्त नहीं होते, जैसे पंजर में बंधा शकुनि अपने को मुक्त नहीं कर पाता पंजर से।'२ ४. धर्म और वाममार्ग धार्मिक जगत् में वाममार्ग का इतिहास बहुत पुराना है। वाममार्गी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे। उनके सामने धर्म का भी कोई मूल्य नहीं था । पर समाज में धर्म का मूल्य बहुत बढ़ चुका था। इसलिए उसे स्वीकारना सबके लिए अनिवार्य हो गया। वाममार्गी धर्म के पवित्र पीठ पर विषयों को प्रस्थापित कर रहे थे। जनता का झुकाव उस ओर बढ़ रहा था। मनुष्य सहज ही विषयों से आकृष्ट होता है। उसे जब धर्म के आसन पर विषय मिल जाते हैं तब उसका आकर्षण और अधिक बढ़ जाता है। इन्द्रिय-संयम में मनुष्य का नैसर्गिक आकर्षण नहीं है। वर्तमान की प्रियता भविष्य के लाभ को सदा से अभिभूत करती रही है। १. सूयगडो, १।१।५० सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २. सूयगडो, १।१।४९ : एवं तक्काए साहेंता, धमाधम्मे अकोविया । दुक्खं ते णातिवटंति, सउणी पंजरं जहा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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