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क्रान्ति का सिंहनाद / १३५
भगवान् ने संयम को इतनी प्रधानता दी कि उसके सामने वेश और परिवेश के प्रश्न गौण हो गए। साधुत्व की प्रतिमा बाहरी आकार-प्रकार से हटकर अन्तर के आलोक की वेदी पर प्रतिष्ठित हो गई। ३. धर्म और सम्प्रदाय
यदि पात्र के बिना प्रकाश, छिलके के बिना फल और भाषा के बिना ज्ञान होता तो धर्म सम्प्रदाय से मुक्त हो जाता। पर इस दुनिया में ऐसा नहीं होता। धर्म-दीप की लौ है तो सम्प्रदाय उसका पात्र । धर्म फल का सार है तो सम्प्रदाय उसका छिलका । धर्म चैतन्य है तो सम्प्रदाय उसको व्यक्त करने वाली भाषा।
सम्प्रदाय जब आवरण बनकर धर्म पर छा जाता है, तब पात्र, छिलके और भाषा का मूल्य लौ, सार और ज्ञान से अधिक हो जाता है । भगवान् के युग में कुछ ऐसा ही चल रहा था। सम्प्रदाय धर्म की आत्मा कचोट रहे थे। धर्म की ज्योति सम्प्रदाय की राख से ढकी जा रही थी। उस समय भगवान् ने धर्म को सम्प्रदाय की प्रतिबद्धता से मुक्त कर उसके व्यापक रूप को मान्यता दी।
गौतम ने पूछा - 'भंते ! शाश्वत धर्म क्या है?' भगवान् ने कहा – 'अहिंसा शाश्वत धर्म है। अतीत में जो ज्ञानी हुए हैं, भविष्य में जो होंगे। अहिंसा उन सबका आधार है, प्राणियों के लिए जैसे पृथ्वी।२
'भंते ! कुछ दार्शनिक कहते हैं - हमारे सम्प्रदाय में ही धर्म है, उससे बाहर नहीं है। क्या यह सही है?'
___ 'गौतम! मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी - यह सम्प्रदाय और मुक्ति का अनुबन्ध साम्प्रदायिक उन्माद है। इस उन्माद से उन्मत्त व्यक्ति दूसरों को उन्माद ही दे सकता है, धर्म नहीं दे सकता।'३
'भंते ! कोई व्यक्ति श्रमण-धर्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है, क्या यह मानना सही नहीं है? १. आयारो,४|१,२:
सव्वे पाणा, सव्वे भूता, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता ण हंतव्वा... एस धम्मे सुद्धे
णिइए, सासए ... । २. सूयगडो, १ । ११ । ३६:
जे य बुद्धा अइकंता, जे य बुद्धा अणागया ।
संती तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥ ३. सूयगडो, १।१।७३:
सए सए उवट्ठाणे, सिद्धिमेव ण अण्णहा । अधो वि होति वसवत्ती, सव्वकामसमप्पिए ॥
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