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१३४ / श्रमण महावीर
पहने घूम रहे हैं। वे भोली-भाली जनता में साधु कहलाते हैं। किन्तु जानकार मनुष्य उन्हें साधु नहीं कहते।'
'भंते ! वे साधु किसे कहते हैं?' भगवान् ने कहा - 'ज्ञान और दर्शन से संपन्न, संयम और तप में रत। जो इन गुणों से समायुक्त है, जानकार मनुष्य उसे साधु कहते हैं।"
वैदिक परम्परा ने गृहस्थाश्रम को महत्व दिया और श्रमण-परम्परा ने संन्यास को। साधना का मूल्य गृहस्थ और साधु के वेश से प्रतिबद्ध नहीं है। वह संयम से प्रतिबद्ध है।
अभयकुमार ने भगवान् से पूछा - 'भंते ! भगवान् भिक्षु को श्रेष्ठ मानते हैं या गृहस्थ को?'
भगवान् ने कहा - 'मैं संयम को श्रेष्ठ मानता हूं। संयमरत गृहस्थ और भिक्षु - दोनों श्रेष्ठ हैं। असंयमरत गृहस्थ और भिक्षु- दोनों श्रेष्ठ नहीं हैं।'
'भंते ! क्या श्रमण भी संयम से शून्य होते हैं?' । भगवान् ने कहा- 'यह अन्तर् का आलोक न सब भिक्षुओं में होता है, और न सब गृहस्थों में।
गृहस्थ हैं नाना शीलवाले। सब भिक्षुओं का शील समान नहीं होता। 'कुछ भिक्षुओं से गृहस्थ का संयम अनुत्तर होता है। सब गृहस्थों से भिक्षु का संयम अनुत्तर होता है।
१. दसवेआलियं,७१४८, ४९ :
बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो । न लवे असाहुं साहु त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ।। नाण-दसण-संपन्नं, संजमे य तवे रयं ।
एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥ २. उत्तरज्झयणाणि,५।१९, २०:
न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सव्वेसुऽगारिसु । नाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो ॥ संति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥
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