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________________ १३६/ श्रमण महावीर _ 'गौतम! नाम और रूप के साथ धर्म की व्याप्ति नहीं है। उसकी व्याप्ति अध्यात्म के साथ है। इसलिए यह मानना सत्य की सीमा में होगा कि कोई व्यक्ति अध्यात्म का अनुयायी होकर ही धार्मिक हो सकता है।' 'भंते ! तो क्या धर्म का सम्प्रदाय के साथ अनुबन्ध नहीं है?' 'गौतम! यदि धर्म का सम्प्रदाय के साथ अनुबन्ध हो तो 'अश्रुत्वा केवली' कैसे हो सकता है?' 'यह कौन होता है, भंते?' 'गौतम! जो व्यक्ति सम्प्रदाय से अतीत है और जिसने धर्म का पहला पाठ भी नहीं सुना, वह आध्यात्मिक पवित्रता को बढ़ाते-बढ़ाते केवली (सर्वज्ञ और सर्वदर्शी) हो जाता 'भंते ! ऐसा हो सकता है?' 'गौतम! होता है, तभी मैं कहता हूं कि धर्म और सम्प्रदाय में कोई अनुबन्ध नहीं है। मैं अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से देखता हूं - १. कुछ व्यक्ति गृहस्थ के वेश में मुक्त हो जाते हैं । मैं उन्हें गृहलिंगसिद्ध कहता हूं। २. कुछ व्यक्ति हमारे वेश में मुक्त होते हैं। मैं उन्हें स्वलिंगसिद्ध कहता हूं। ३. कुछ व्यक्ति अन्य-तीर्थिकों के वेश में मुक्त हो जाते हैं । मैं उन्हें अन्यलिंगसिद्ध कहता हूं। विभिन्न वेशों और विभिन्न चर्याओं के बीच रहे हुए व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, तब धर्म और सम्प्रदाय का अनुबन्ध कैसे हो सकता है? गौतम ने प्रश्न को मोड़ देते हुए कहा- 'भंते ! यदि सम्प्रदाय और धर्म का अनुबन्ध नहीं है तो फिर सम्प्रदाय की परिधि में कौन जाना चाहेगा? भगवान् ने कहा - 'यह जगत् विचित्रताओं से भरा है। इसमें विभिन्न रुचि के लोग कुछ लोग सम्प्रदाय को पसन्द करते हैं, धर्म को पसन्द नहीं करते। कुछ लोग धर्म को पसन्द करते हैं, सम्प्रदाय को पसन्द नहीं करते। कुछ लोग सम्प्रदाय और धर्म -- दोनों को पसन्द करते हैं। कुछ लोग सम्प्रदाय और धर्म - दोनों को पसन्द नहीं करते। हम जगत् की रुचि में एकरूपता नहीं ला सकते । जनता का झुकाव सब दिशाओं में होता है। धर्म-विहीन सम्प्रदाय की दिशा निश्चित ही भयाक्रांत होती है। भगवान् महावीरअहिंसा की गहराई में पहुंच चुके थे। इसलिए साम्प्रदायिक उन्माद उन पर आक्रमण नहीं कर सका। आत्मौपम्य की दृष्टि को हृदयंगम किए बिना धर्म के मंच पर आने वाले व्यक्ति के सामने धर्म गौण और सम्प्रदाय मुख्य होता है । आत्मौपम्य दृष्टि को प्राप्त कर धर्म के मंच पर आने वाले व्यक्ति के सामने सम्प्रदाय गौण और धर्म १. ठाणं ४ । ४२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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