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________________ १३० / श्रमण महावीर ___ भगवान् ने अपने संघ में समता का बीज बोया, उसे सींचा, अंकुरित किया, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। भगवान् ने समता के प्रति प्रगाढ़ आस्था उत्पन्न की। अतः उसकी ध्वनि सब दिशाओं में प्रतिध्वनित होने लगी। ___ जयघोष मुनि घूमते-घूमते वाराणसी में पहुंचे। उन्हें पता चला कि विजयघोष यज्ञ कर रहा है। वे विजयघोष की यज्ञशाला में गए। यज्ञ और जातिवाद का अहिंसक ढंग से प्रतिवाद करना महावीर के शिष्यों का कार्यक्रम बन गया था। इस कार्यक्रम में ब्राह्मण मुनि काफी रस ले रहे थे। जयघोष जाति से ब्राह्मण थे। विजयघोष भी ब्राह्मण था। एक यज्ञ का प्रतिकर्ता और दूसरा उसका कर्ता । एक जातिवाद का विघटक और दूसरा उसका समर्थक। श्रमण और वैदिक - ये दो जातियां नहीं हैं। ये दोनों एक ही जाति-वृक्ष की दो विशाल शाखाएं हैं । उनका भेद जातीय नहीं किन्तु सैद्धान्तिक है । श्रमण-धारा का नेतृत्व क्षत्रिय कर रहे थे और वैदिक धारा का नेतृत्व ब्राह्मण। फिर भी बहुत सारे ब्राह्मण श्रमणधारा में चल रहे थे और बहुत सारे क्षत्रिय ब्राह्मण-धारा में। उस समय धर्म-परिवर्तन व्यक्तिगत प्रश्न था। उसका व्यापक प्रभाव नहीं होता था। यदि धर्म-परिवर्तन का अर्थ जाति-परिवर्तन होता तो समस्या बहुत गम्भीर बन जाती। किन्तु एक ही भारतीय जाति के लोग अनेक धर्मों का अनुगमन कर रहे थे, इसलिए उनके धर्म-परिवर्तन का प्रभाव केवल वैचारिक स्तर पर होता । जातीय स्तर पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। विजयघोष के मन में वैचारिक भेद उभर आया। उसने दर्प के साथ कहा - मुने! इस यज्ञ-मंडप में तुम भिक्षा नहीं पा सकते। कहीं अन्यत्र चले जाओ। यह भोजन वेदविद् और धर्म के पारगामी ब्राह्मणों के लिए बना है।' मुनि बोले - 'विजयघोष ! मुझे भिक्षा मिले या न मिले, इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं। मुझे इसकी चिन्ता है कि तुम ब्राह्मण का अर्थ नहीं जानते।' । विजयघोष – 'इसका अर्थ जानने में कौन-सी कठिनाई है? जो ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न ब्राह्मण के कुल में जन्म लेता है, वह ब्राह्मण है।' मुनि - 'मैं तुम्हारे सिद्धान्त का प्रतिवाद करता हूं। जाति जन्मना नहीं होती, वह कर्मणा होती है। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय । कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र । विजयघोष - 'ब्राह्मण का कर्म क्या है? मुनि- 'ब्राह्मण का कर्म है -'ब्रह्मचर्य । जो व्यक्ति ब्रह्म का आचरण करता है, वह १. उत्तरज्झयणाणि, २५ । ३१: कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । बइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवई कम्मुणा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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