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________________ क्रान्ति का सिहंनाद / १२९ 'आर्यों ! यह गोत्र मनुष्य के शरीर पर केंचुली है। इससे मनुष्य अन्धा हो जाता है। इसके छूटने पर ही वह देख सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सर्प जैसे केंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही मुनि गोत्र को छोड़ दे। वह गोत्र का मद न करे। किसी का तिरस्कार न करे। ५. भगवान् के संघ में अभिवादन की एक निश्चित व्यवस्था थी। उसके अनुसार दीक्षा-पर्याय में छोटे मुनि को दीक्षा-ज्येष्ठ मुनि का अभिवादन करना होता था। एक मुनि के सामने यह व्यवस्था समस्या बन गई। वह राज्य को छोड़कर मुनि बना था। उसका नौकर पहले ही मुनि बन चुका था। राजर्षि की आंखों पर मद का आवरण आ गया। उसने उस नौकर मुनि का अभिवादन नहीं किया। यह बात भगवान् तक पहुंची । भगवान् ने मुनिपरिषद् को आमंत्रित कर कहा, 'सामाजिक व्यवस्था में कोई सार्वभौम सम्राट होता है, कोई नौकर और कोई नौकर का भी नौकर । किन्तु मेरे धर्म-संघ में दीक्षित होने पर न कोई सम्राट रहता है और न कोई नौकर। वे बाहरी उपाध्यिों से मुक्त होकर उस लोक में पहुंच जाते हैं, जहां सब सम हैं, कोई विषम नहीं है। फिर अपने दीक्षा-ज्येष्ठ का अभिवादन करने में किसी को लज्जा का अनुभव नहीं होना चाहिए। सम्राट और नौकर होने की विस्मृति होने पर ही आत्मा में समता प्रतिष्ठित हो सकती है।' राजर्षि का अहं विलीन हो गया। उनका नौकर अब उनका साधर्मिक भाई बन गया। भगवान् ने अपने संघ को एक समता-सूत्र दिया। वह हजारों-हजारों कंठों से मुखरित होता रहा। उसने असंख्य लोगों के 'अहं' का परिशोधन किया। वह सूत्र है - 'यह जीव अनेक बार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है। अतः न कोई किसी से हीन है और न कोई अतिरिक्त । यह जीव अनेक बार उच्च या नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है - यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा और कौन मानवादी' १. सूयगडो, १।२ । २३, २४: तय सं वह जहाइ से रयं, इइ संखाय मुणी ण मजई । गोयण्णतरेण माहणे, अहऽसेयकरी अण्णेसि इंखिणी ॥ जो परिभवई परं जणं,संसारे परिवत्तई महं । अद इंखिणिया उ पाविया, इह संखय मणी ण मजई ॥ २. सूयगडो, १।२ । २५: जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया । इदं मोणपयं उवट्ठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ॥ ३. आयारो, २१४९,५०: से असई उच्चागोए, असई णीयागोए । णो हीणे णो अइरित्ते, णो पीहए । इति संखाय के गोयावादी? के माणावादी? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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