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क्रान्ति का सिंहनाद / १३१
ब्राह्मण होता है।' जैसे जल में उत्पन्न कमल उसमें लिप्त नहीं होता, वैसे ही जो मनुष्य काम में उत्पन्न होकर उसमें लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । जो राग, द्वेष और भय से अतीत होने के कारण मृष्ट स्वर्ण की भांति प्रभास्वर होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । ३
'जो अहिंसक, सत्यवादी और अकिंचन होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । ४ विजयघोष का विचार- परिवर्तन हो गया । उसने कर्मणा जाति का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया ।
हरिकेश जाति से चांडाल थे । वे मुनि बन गए । वे वाराणसी में विहार कर रहे थे । उस समय रुद्रदेव पुरोहित ने यज्ञ का विशाल आयोजन किया। हरिकेश उस यज्ञ-वाटिका
गए। रुद्रदेव ने मुनि का तिरस्कार किया। वे उससे विचलित नहीं हुए। दोनों के बीच लम्बी चर्चा चली। चर्चा के मध्य रुद्रदेव ने कहा- 'मुने ! जाति और विद्या से युक्त ब्राह्मण ही पुण्यक्षेत्र हैं । ' ५
मुनि ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा - जिनमें क्रोध, मान, हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह है, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन हैं। वे पुण्य-क्षेत्र नहीं हैं।
'तुम केलव वाणी का भार ढो रहे हो । वेदों को पढ़कर भी तुम उनका अर्थ नहीं जानते । जो साधक विषम स्थितियों में समता का आचरण करते हैं, वे ही सही अर्थ में ब्राह्मण और पुण्य-क्षेत्र हैं।
रुद्रदेव को यह बात बहुत अप्रिय लगी उसने मुनि को ताड़ना देने का प्रयत्न किया ।
१. उत्तरज्झयणाणि, २५ / ३० :
बम्भचेरेण बम्भणो ।
२. वही, २५ । २६:
जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तो कामेहिं तं वयं बूम माहणं । ३. वही, २५ । ११ः
जायरूवं जहामट्ठ, निद्धन्तमलपावगं । रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम माहणं ॥ ४. वही, २५ । २२, २३, २७ । ५. वही, १२ । १३:
जे माहणा जाइविज्जोववेया, ताइं तु खेत्ताई सुपेसलाई ।
६. वही, १२ । १४:
कोहो यमाणो य वहो य जेसिं, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च, माहा जाइविज्जाविहूणा, ताइं तु खेत्ताई सुपावयाई ॥
७. वही, १२ । १५ :
तुभेत्थ भो ! भारधरा गिराणं, अठ्ठे न जाणाह अहिज्ज वेए । उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति, ताइं तु खेत्ताई सुपेसलाई ॥
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