SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रान्ति का सिंहनाद भी इस विश्व में प्रकाश और तिमिर की भांति सत् और असत् अनादिकाल से है। कोई युग केवल प्रकाश का नहीं होता और कोई भी युग केवल अन्धकार का नहीं होता । आज भी प्रकाश है और महावीर के युग में भी अन्धकार था । भगवान् ने मानवीय चेतना की सहस्र रश्मियों को दिग्-दिगंत मैं फैलने का अवसर दिया। मानस का कौन-कौना आलोक से भर उठा। भगवान् महावीर ने अहिंसा को समता की भूमिका पर प्रतिष्ठित कर उस युग की चिन्तनधारा को सबसे बड़ी चुनौती दी । अहिंसा का सिद्धान्त श्रमण और वैदिक - दोनों को मान्य था । किन्तु वैदिकों की अहिंसा शास्त्रों पर प्रतिष्ठित थी । उसके साथ विषमता भी चलती थी । उसके घटक तत्व भी चलते थे । 1 १. जातिवाद विषमता का मुख्य घटक था जन्मना जाति का सिद्धान्त । ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठ माना जाता है और शूद्र जन्मना तुच्छ । इस जातिवाद के विरोध में उन सबने आवाज उठाई जो अध्यात्म-विद्या में निष्णात थे । २७ बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य कहते हैं - 'ब्रह्मनिष्ठ साधु ही सच्चा ब्राह्मण है ।' किन्तु इस प्रकार के स्वर इतने मंद थे कि जाति वाद के कोलाहल में जनता उन्हें सुन ही नहीं पाई। भगवान् महावीर ने उस स्वर को इतना बलवान् बनाया कि उसकी ध्वनि जन-जन के कानों से टकराने लगी। भगवान् ने कर्मणा जाति के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । भगवान् के शासन में दास, शूद्र और चांडाल जाति के व्यक्ति दीक्षित हुए और उन्हें ब्राह्मणों के समान उच्चता प्राप्त हुई । भगवान् ने अपनी साधु-संस्था को प्रयोगभूमि बनाया। उसमें जातिमद तथा गोत्रमद को निर्मूल करने के प्रयोग किए। आज हमें अचरज हो सकता है कि साधु-संस्था में इस प्रयोग का अर्थ क्या है ? किन्तु ढाई हजार वर्ष पुराने युग में अचरज की बात नहीं थी । उस समय यह वास्तविकता थी । बहुत सारे साधुसंन्यासी जाति - गोत्र की उच्चता और नीचता के प्रतिपादन में अपना श्रेय मानते थे । यह विषमता धर्म के मंच से ही पाली-पोसी जाती थी। इसका विरोध भी धर्म के मंच से हो रहा था। भगवान् महावीर ने समता के मंच का नेतृत्व सम्भाल लिया। उनके सशक्त नेतृत्व को पाकर समता का आन्दोलन प्राणवान् हो गया। भगवान् के संघ में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति को सबसे पहले समता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy