________________
क्रान्ति का सिहंनाद / १२७
(सामायिक) का व्रत स्वीकारना होता, फिर भी कुछ मुनियों के जाति-संस्कार क्षीण नहीं होते।
१. एक बार कुछ निर्ग्रन्थ भगवान् के पास आकर बोले - भंते ! हम भगवान् के धर्म-शासन में प्रव्रजित हुए हैं। भगवान् ने हमें समता-धर्म में दीक्षित किया है। फिर भी भंते ! हमारे कुछ साथी अपने गोत्र का मद करते हैं और अपने बड़प्पन को बखानते हैं।'
भगवान् ने उस साधु-कुल को आमंत्रित कर कहा - 'आर्यों ! तुम प्रव्रजित हो, इसकी तुम्हें स्मृति है?' 'भंते! है।' 'आर्यों ! तुम कहां प्रव्रजित हो, इसकी तुम्हें स्मृति है?' 'भंते ! है। हम भगवान् के शासन में प्रव्रजित हैं।' 'आर्यों ! तुम्हें इसका पता है, मैंने किस धर्म का प्रतिपादन किया?' 'भंते! हमें वह ज्ञात है। भगवान् ने समता-धर्म का प्रतिपादन किया है।' 'आर्यों ! समता-धर्म में जाति मद के लिए कोई स्थान है?' 'भंते! नहीं है। पर हमारे पुराने संस्कार अभी छूट नहीं रहे हैं।' उस समय भगवान् ने उन्हें पथ-दर्शन दिया -
'जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र या लिच्छवि मेरे समता-धर्म में दीक्षित होकर गोत्र का . मद करता है, वह लौकिक आचार का सेवन करता है।'
'वह सोचे - क्या परदत्तभोजी श्रमण को गोत्र-मद करने का अधिकार है?' 'वह सोचे - क्या उसे जाति और गोत्र त्राण दे सकते हैं या विद्या और चरित्र?२ २. एक निर्ग्रन्थ से पूछा - 'तो भंते! हमारा कोई गोत्र नहीं है?' 'सर्वथा नहीं।' 'भंते ! यह कैसे?' 'तुम्हारा ध्येय क्या है?' 'भंते! मुक्ति।' 'वहां तुम्हारा कौन-सा गोत्र होगा?' 'भंते ! वह अगोत्र है।'
'सगोत्र अगोत्र में प्रवेश नहीं पा सकता। इसलिए मैं कहता हूं - तुम अगोत्र हो, गोत्रातीत हो।' १. सूयगडो, १ । २।६: समताधम्ममुदाहरे मुणी । २. सूयगडो, १ । १३ । १०, ११:
जे माहणे खत्तिए जाइए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छवी वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोतेण जे थब्भति माणबद्धे ॥ ण तस्स जाती व कुलं व ताणं,णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं । णिक्खम्म से सेवईऽगारिकम्म, ण से पारए होति विमोयणाए ।
--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org