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________________ नई स्थापनाएं : नई परम्पराएं / १२१ तपस्वी, यदि वह अब्रह्मचर्य की प्रार्थना करता है, तो वह मेरे लिए प्रिय नहीं है, भले फिर वह साक्षात् ब्रह्मा ही क्यों न हो। भगवान् की आत्म-निष्ठा और अनुत्तर इन्द्रिय-विजय ने ब्रह्मचर्य-विकास के नए आयाम खोल दिए। उनसे पूर्व अब्रह्मचर्य को अनेक दिशाओं से प्रोत्साहन मिल रहा था। कुछ धर्म-चिन्तक 'संतान पैदा किए बिना परलोक में गति नहीं होती' - इस सिद्धांत का प्रतिपादन कर विवाह की अनिवार्यता प्रतिपादित कर रहे थे। कुछ संन्यासी अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक कर्म बतलाकर उसकी निर्दोषता प्रमाणित कर रहे थे। वे कह रहे थे - जैसे व्रण को सहलाना स्वाभाविक है वैसे ही वासना के व्रण को सहलाना स्वाभाविक है। इन दोनों धारणाओं के प्रतिरोध में खड़े होकर भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को इतना मूल्य दिया कि उनके उत्तर-युग में गृहवास में रहकर भी ब्रह्मचारी रहने को जीवन की सार्थकता समझा जाने लगा। भगवान् दीक्षित हुए तब उनके पास केवल एक वस्त्र था। कुछ दिनों बाद उसे भी छोड़ दिया। वे मूर्छा की दृष्टि से प्रारम्भ से ही निर्ग्रन्थ थे, किन्तु वस्त्र-त्याग के बाद उपकरणों से भी निर्ग्रन्थ हो गए। तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भगवान् ने निर्ग्रन्थों को सीमित वस्त्र और पात्र रखने की अनुमति दी और वह केवल उन्हीं निर्ग्रन्थों को, जो लज्जा पर विजय पाने में असमर्थ थे। महावीर के इन परिवर्तनों ने भगवान् पार्श्व और स्वयं उनके शिष्यों में एक प्रश्न पैदा कर दिया। केशी और गौतम की चर्चा में इसका स्पष्ट चित्र मिलता है। ___गौतम स्वामी अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती आए। कुमार श्रमण केशी पहले ही वहां उपस्थित थे। गौतम कोष्ठक उद्यान में ठहरे। केशी तिन्दुक उद्यान में ठहरे हुए थे। दोनों के शिष्यों ने एक-दूसरे को देखा। उनके मन के प्रश्न उभार में आ गए। उन्होंने आपस में चर्चा शुरू कर दी। हमारा लक्ष्य एक है तब फिर यह भेद क्यों? यह चार और पांच महाव्रतों का भेद क्यों? यह पूर्ण वस्त्र और अवस्त्र या अल्पवस्त्र का भेद क्यों?' यह चर्चा गौतम और केशी के कानों तक पहुंची। दोनों ने अपने-अपने शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान करना चाहा। मिलने की योजना बन गई। ___ गौतम अपने शिष्यों को लेकर तिन्दुक वन में पहुंच गए। केशी ने उनका स्वागत किया। उन्हें बैठने के लिए आसन दिए। दोनों के बीच चर्चा शुरू हुई। केशी द्वारा महाव्रतों के विस्तार का कारण पूछने पर गौतम ने कहा- भगवान् पार्श्व के युग में मुनि ऋजु-प्रज्ञ थे। वे व्रत के आशय को पकड़ते थे। भगवान् पार्श्व ने बाह्य के आदान का प्रतिषेध किया। इस आधार पर वे अब्रह्म और परिग्रह दोनों का निषेध स्वीकार १. जइ ठाणी जई मोणी, जई झाणी वक्कली तवस्सी वा । __ पत्तो य अबंभं, बंभा वि न रोयए मण्झं ॥ २. उत्तरज्झयणाणि, २३।१-२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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