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________________ तत्कालीन धर्म और धर्मनायक / ११९ पूर्वी देशों के व्रात्य क्षत्रियों में उनका धर्म लोकप्रिय हो चुका था । वैशाली और वैदेह के वज्जीगण भगवान् पार्श्व के परम भक्त थे । भगवान् महावीर का परिवार भगवान् पार्श्व के धर्म का अनुयायी था। भगवान् बचपन से ही भगवान् पार्श्व और उनकी धर्म-परम्परा से परिचित थे । भगवान् का गृहत्याग श्रमणधर्म की प्राची में बाल-सूर्य के आलोक का संचार था। भगवान् के द्वारा तीर्थ - प्रवर्तन श्रमणधर्म के पुनरुत्थान का अभिनव अभियान था । भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के प्रति अत्यन्त श्रद्धानत थे । वे भगवान् पार्श्व को पुरुषादानीय ( लोकनेता) के सम्मान्य संबोधन से सम्बोधित करते थे । किन्तु भगवान् पार्श्व की परम्परा में, कुछ कारणों से, लक्ष्य के प्रति शिथिलता आ गई थी। भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन का अर्थ था - पार्श्व की परम्परा का नवीनीकरण | भगवान् पार्श्व ने सामायिक चारित्र का प्रतिपादन किया था। उनके संघ में सम्मिलित होने वाले समता की साधना का व्रत लेते थे। उनके सामायिक के चार अंग थे१. अहिंसा २. सत्य ३. अचौर्य ४. बाह्यादान (परिग्रह) विरमण । भगवान् महावीर ने देखा भगवान् पार्श्व के श्रमण ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के सम्बन्ध में शिथिल दृष्टिकोण अपनाते जा रहे हैं । भगवान् पार्श्व द्वारा प्रदत्त पूर्व-ज्ञान का प्रयोग चमत्कार - प्रदर्शन में कर रहे हैं। साधना काल में भगवान् को ऐसे अनेक अनुभव हुए थे। मंक्खलिपुत्त गोशालक को अष्टांग - निमित्त की शिक्षा देने वाले श्रमण भगवान् पार्श्व की परम्परा में ही दीक्षित हुए थे। उनके नाम हैं- शाण, कलंद, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवैश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन। वे सुख-दुःख, लाभ-अलाभ और मृत्यु के रहस्यों के पारगामी विद्वान् थे। उनकी भविष्यवाणी बड़ी चमत्कारपूर्ण होती थी। वे भगवान् पार्श्व के शासन से पृथक् होकर अष्टांग-निमित्त से जीविका चलाते थे। भगवान् महावीर इन सारी परिस्थितियों का अध्ययन कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वर्तमान परम्परा में नया प्राण फूंके बिना उसे सजीव नहीं बनाया जा सकता। १. भगवती, ५ । २५५; से नूणं भे अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं .... । २. भगवती, १५ । ३ - ६; भगवती वृत्ति, पत्र ६५९ पासावच्चिज्जति चूर्णिकारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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