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________________ ११६ / श्रमण महावीर ऊपर की ओर तने हुए थे। खुली जटा । सूर्य के सामने दृष्टि । यह थी उसकी मुद्रा । उसकी जट से जुएं भी गिर रही थीं। वह उन्हें उठाकर पुनः अपनी जटा में रख रहा था । यह देख गोशालक ने मुझसे पूछा - 'भंते! वह जुओं का आश्रयदाता कौन है ?' उसने इस प्रश्न को कई बार दोहराया। तपस्वी क्रुद्ध हो गया। उसने गोशालक को जलाने के लिए तेजोलब्धि नामक योगशक्ति का प्रयोग किया। उसके मुंह से धुआं निकलने लगा। उसके पीछे आग की तेज लपटें दीख रही थीं। उस समय मैंने अपने शिष्य को भस्म होने देना उचित नहीं समझा। मैंने शीत तेजोलब्धि का प्रयोग कर उसे हतप्रभ कर दिया। गोशालक का जीवन बच गया । " इस घटना का उसके मन पर बहुत असर हुआ । वह तेजोलब्धि को प्राप्त करने के लिए आतुर हो गया। मैंने उसका रहस्य गोशालक को बता दिया। उसने बड़ी तत्परता से तेजोलब्धि की साधना की। वह उसे प्राप्त कर शक्तिशाली हो गया।' 'भन्ते ! क्या मैं वह रहस्य जान सकता हूं?" गौतम ने पूछा भगवान् ने कहा 'गौतम ! जो व्यक्ति छह मास तक निन्तर दो-दो उपवास (बेले- बेले) की तपस्या करता है, सूर्य के सामने दृष्टि रखकर खड़े-खड़े उसका आप लेता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उबले हुए छिलकेदार उड़द खाता है और चुल्लूभर गर्म पानी पीता है, वह तेजोलब्धि को प्राप्त कर लेता है । २ ― गौतम जैसे-जैसे भगवान् को सुन रहे थे, वैसे-वैसे उनका मन भगवान् के चरणों में लीन हो रहा था। वे अपने गुरु के गौरवमय अतीत पर प्रफुल्ल हो रहे थे । वे भावावेश में बोले - ' भन्ते ! मैंने आपको बहुत कष्ट दिया। पर क्या करूं, इसके बिना अतीत की शून्यता को भर नहीं सकता । भन्ते ! आपको मेरी भावना की पूर्ति के लिए थोड़ा कष्ट और करना होगा । भन्ते ! महाश्रमण पार्श्व का धर्मतीर्थ आज भी चल रहा है। उसमें सैकड़ोंसैंकड़ों साधु-साध्वियां विद्यमान हैं। भगवान् से उनका कभी साक्षात् नहीं हुआ ?' I 'गौतम ! मुझे लोकमान्य अर्हत् पार्श्व के शासन से च्युत कुछ परिवाज्रक मिले थे । उनके शासन का कोई साधु नहीं मिला। गोशालक से उनका साक्षात् हुआ था। मैं कुमाराक सन्निवेश के चंपक - रमणीय उद्यान में विहार कर रहा था । गोशालक मेरे साथ था । दुपहरी भिक्षा के लिए सन्निवेश में चलने का अनुरोध किया। मेरे उपवास था, इसलिए मैं नहीं गया । वह सन्निवेश में गया । उस सन्निवेश में कूपनय नाम का कुंभकार रहता था। वह बहुत धनाढ्य था । उसकी शाला में भगवान् पार्श्व की परम्परा के साधु ठहरे हुए थे। गोशालक ने उन्हें देखा । उनके बहुरंगी वस्त्रों को देख गोशालक ने पूछा - 'आप कौन हैं? उन्होंने उत्तर दिया 'हम श्रमण हैं । भगवान् पार्श्व के शासन में साधना कर रहे हैं । ' गोशालक बोला- 'इतने वस्त्र - पात्र रखने वाले श्रमण कैसे हो सकते हैं? १. भगवती, १५ । ६०-६८; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९८, २९९ । २. भगवती, १५ । ६९, ७०, ७६, आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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