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अतीत का सिंहावलोकन / ११५
चाहा। मैंने कहा - खीर नहीं पकेगी, हांडी फट जाएगी।
मैं आगे चला गया। गोशालक वहीं रहा। उसने ग्वालों को सावधान कर दिया। ग्वालों ने हांड़ी को बांस की खपाचों से बांध दिया। हांड़ी दूध से भरी थी। चावल अधिक थे। वे फूले तब हांड़ी फट गई। खीर नीचे ढुल गई। गोशालक के मन में नियति का पहला बीच-वपन हो गया। उसने सोचा - जो होने का होता है वह होकर ही रहता है। ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुईं। एक-दो मुख्य घटनाएं ही मैं तुम्हें बता रहा हूं।
एक बार हम लोग सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम जा रहे थे। रास्ते में एक खेत आया। उसमें सात पुष्प वाला एक तिल का पौधा था। गोशालक ने मुझे पूछा - 'क्या यह फलेगा?' मैंने कहा - 'अवश्य फलेगा। इसके सात पुष्पों के सात जीव एक ही फली में उत्पन्न होंगे।'
___ मैं आगे बढ़ गया । गोशालक पीछे की ओर मुड़ा। उसने उस खेत में जा तिल के पौधे को उखाड़ दिया।
हम कुछ दिन कूर्मग्राम में ठहरकर वापस सिद्धार्थपुर जा रहे थे। फिर वही खेत आया। गोशालक ने कहा - 'भंते ! वह तिल का पौध नहीं फला, जिसके फलने की आपने भविष्यवाणी की थी।'
मैंने सामने की ओर उंगली से सकेंत कर कहा - 'यह वही तिल का पौधा है, जिसके फलने की मैंने भविष्यवाणी की थी और जिसे तुमने उखाड़ा था।'
गोशालक को मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह उस पौधे के पास गया। उसकी फली को तोड़कर देखा। उसमें सात ही तिल निकले। वह स्तब्ध रह गया। उसने आश्चर्य के साथ पूछा - 'भंते! यह कैसे हुआ? मैंने उसे बताया - 'तुम उस पौधे को उखाड़कर आ गए। थोड़ी देर के बाद वर्षा हुई। उधर से एक गाय आई। उसका खुर उस पर पड़ा। वह जमीन में गड़ गया।'
गोशालक के मन में नियति का बीज अंकुरित हो गया। उसने फिर उसी भाषा में सोचा – 'जो होने का होता है, वह होकर ही रहता है। मृत्यु के उपरांत सभी जीव अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं।'३
___ गौतम बड़ी तन्मयता से भगवान् की बात सुन रहे थे। उनकी बुद्धि प्रत्येक तथ्य की गहराई तक पहुंच रही थी। वे भगवान् के प्रत्येक वचन को बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ रहे थे। वे अतृप्त जिज्ञासा को शांत करने के लिए बोले – 'भंते ! आपने गोशालक को शक्ति के रहस्य सिखलाए, उस विषय में कुछ सुनना चाहता हूं।'
भगवान् ने कहना प्रारम्भ किया - 'एक बार हम लोग कूर्मग्राम में विहार कर रहे थे। वहां वैश्यायन नाम का तपस्वी तपस्या कर रहा था। मध्यान्ह का समय। दोनों हाथ १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८३ । २. साधना का दसवां वर्ष । ३. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २९७, २९८ । ४. साधना का दसवां वर्ष ।
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