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________________ ११४ / श्रमण महावीर 'गौतम ! मुझे अहिंसा और सापेक्षता को जनता तक पहुंचाना है। उसे जनता के माध्यम से ही पहुंचाया जा सकता है। धर्म की उत्पत्ति और निष्पत्ति समाज में ही होती है, शून्य में नहीं होती।' 'भंते ! फिर लम्बे समय तक शून्य में रहने का क्या अर्थ है?' 'गौतम ! उसका अर्थ था शून्य को भरना। अपनी शून्यता को भरे बिना दूसरों की शून्यता को भरा नहीं जा सकता। मैं साधना-काल में लगभग अकेला रहा। न सभा में उपस्थिति, न प्रवचन और न संगठन । तत्व-चर्चा भी बहुत कम। मैंने साधना-काल का बारहवां चातुर्मास चम्पा में बिताया। मैं स्वातिदत्त ब्राह्मण की अग्नि-होत्र शाला में रहा। एक दिन स्वातिदत्त ने पूछा - 'भंते! आत्मा क्या है?' 'जो अहं (मैं) का अनुभव है, वही आत्मा है।' 'भंते ! वह कैसा है?' 'सूक्ष्म है।' 'भंते ! सूक्ष्म का अर्थ?' 'जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत नहीं होता।' 'भंते ! इसका साक्षात्कार कैसे किया जा सकता है?' 'मैं इसी प्रयत्न में लगा हूं।' स्वातिदत्त आत्मा की खोज में लग गया। मुझे आत्मा ही प्रिय रहा है। इसलिए मैंने स्वयं उसकी खोज की है और यदा-कदा दूसरों को उस दिशा में जाने को प्रेरित किया है। ___ मैंने साधना के दूसरे वर्ष में एक शिष्य भी बनाया । उसका नाम था - मंखलिपुत्र गोशालक । वह कुछ वर्षों तक मेरे साथ रहा। फिर उसने मेरा साथ छोड़ दिया। मैंने गोशालक के साथ कुछ बातें की, उसके प्रश्नों का उत्तर दिया, अपने अतीन्द्रिय ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा परिचय कराया और आंतरिक शक्ति के कुछ रहस्य भी सिखाए। 'भंते ! यह प्रकरण बहुत ही दिलचस्प है, मैं इसे थोड़े विस्तार से सुनना चाहता हूं। मैं विश्वास करता हूं, भगवान् मुझ पर कृपा करेंगे।' 'गौतम! गोशालक आज नियतिवादी हो गया। नियतिवाद के बीज एक दिन मैंने ही बोए थे।' 'भंते! यह कैसे?' 'गौतम ! एक बार हम (मैं और गोशालक) कोल्लाग सन्निवेश से सुवर्णखल की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर ग्वाले खीर पका रहे थे। गोशालक ने मुझे रोकना १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३२०, ३२१ । २. साधना का तीसरा वर्ष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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