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११० / श्रमण महावीर
रहें हैं । वे बोले - 'महाराज ! आप तिल खाकर भूख को शांत करें ।' तिल निर्जीव थे । फिर भी भगवान् ने तिल खाने की अनुमति नहीं दी। तिल लेने की परम्परा का सूत्रपात एक बार हो गया तो सदा के लिए हो गया । फिर तिल लेने का संस्कार बन जाएगा, सजीव या निर्जीव की बात पीछे रह जाएगी। हर साधु कैसे जान पाएगा कि तिल सजीव हैं या निर्जीव?
भगवान् का काफिला कुछ आगे बढ़ा। मार्ग से थोड़ी दूर पर एक जलाशय दिखाई दिया । प्यास से आकुल साधु बोल उठे 'वह पानी दिख रहा है। भगवान् ने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से देखा - जलाशय का जल निर्जीव है। इसे पीने में कोई हिंसा नहीं होगी पर इसे पीना उचित कैसे होगा? एक बार जलाशय का जल पी लिया, फिर दूसरी बार वह वर्जित कैसे होगा ? हर साधु कैसे जान पाएगा कि जल सजीव है या निर्जीव? भगवान् ने जलाशय का जल पीने की अनुमति नहीं दी ।
उस मार्ग में भगवान् के अनेक साधु दिवंगत हो गए पर उन्होंने संघीय व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं किया।
संघीय जीवन में अनुसरण की बात पर बहुत ध्यान देना होता है। एकाकी जीवन में धर्म की चिन्ता होती है, अनुसरण की चिन्ता नहीं होती
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भगवान् महावीर के संघ से मुक्त होकर एकाकी साधना करने वाले सैकड़ोंसैकड़ों मुनि थे ।
भगवान् ने संघ को बहुत श्रेष्ठता प्रदान की, इसीलिए अधिकांश साधकों ने संघ में रहना पंसद किया। उस समय कुछ धर्मावलम्बी संघ का विरोध भी करते थे ।
एक बार भगवान् के श्रमण भिक्षा लेकर आ रहे थे । एक तपस्वी ने उनसे पूछा - 'तुम कौन हो ?'
2 हम साधु हैं । '
'इस पात्र में क्या है?'
' 'भोजन । '
'भोजन का संग्रह करते हो, फिर साधु कैसे? साधु को जो मिले वह वहीं खा लेना चाहिए। वह पात्र भर क्यों ले आए?'
'हम संग्रह नहीं करते, किन्तु यह भोजन बीमार साधु के लिए ले जा रहे हैं । ' 'दूसरों के लिए ले जा रहे हो, तब तुम निश्चित ही साधु नहीं हो। यह गृहस्थोचित कार्य है, साधु-जनोचित कार्य नहीं है। यह मोह है । '
'यह मोह नहीं है, यह सेवा है ।
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ९९७-९९९, भाग २ पृ०३१४, ३१५ ।
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