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________________ संघातीत साधना/१०९ पद्धति नहीं होती । संघीय साधना पद्धतिबद्ध होती है। साधना को संघीय बनाने के लिए उसकी पद्धति का निर्धारण किया गया। पद्धतिहीन साधना का एकरूप होना जरूरी नहीं है, किन्तु पद्धतिबद्ध साधना का एकरूप होना अत्यन्त जरूरी है। इस एकरूपता के लिए साधना के संविधान की रचना हुई। उससे मुनि-संघ अनुशासित हो गया। संगठन की दृष्टि से उसका बहुत महत्व नहीं है। अनुशासन और साधना की प्रकृति भिन्न है। साधक भी भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं। कुछ अनुशासन के साथ साधना को पसन्द करते हैं और कुछ मुक्त साधना को । मुक्त साधना करने वाले अपना पथ स्वयं चुन लेते हैं। कुछ साधक संघ में दीक्षित होकर बाद में मुक्त साधना करना चाहते हैं। भगवान् महावीर ने इन सबको मान्यता दी। भगवान् ने साधकों को तीन श्रेणीयों में विभक्त कर दिया - १. प्रत्येक बुद्ध - प्रारम्भ से ही संघ-मुक्त साधना करने वाले। २. स्थविरकल्पी - संघबद्ध साधना करने वाले। ३. जिनकल्पी - संघ से मुक्त होकर साधना करने वाले। यह श्रेणी-विभाग भगवान् पार्श्व के समय में भी उपलब्ध होता है। संघ साधना का स्थायी केन्द्र था। अकेले रहकर साधना करने वाले साधकों को उस (साधना) की अनुमति मिल जाती। वे साधना पूर्ण कर फिर संघ में आना चाहते तो आ सकते थे। भगवान् महावीर की दृष्टि संघ से बंधी हुई नहीं थी। उसका अनुबंध साधना के साथ था। साधक का लक्ष्य साधना को विकसित करना है, फिर वह संघ में रहकर करे या अकेले में। साधनाशून्य होकर अकेले में रहना भी अच्छा नहीं है और संघ में रहना भी अच्छा नहीं है। संघ को प्रधान मानने वाले व्यक्ति अपने द्वार को खुला नहीं रख सकते। जो अपने संघ के भीतर आ गया, उसके लिए बाहर जाने का द्वार बन्द रहता है और जो बाहर चला गया, उसके लिए भीतर आने का द्वार बन्द रहता है। भगवान् महावीर ने आने और जाने के दोनों द्वार खुले रखे। साधना के लिए कोई भीतर आए तो आने का द्वार खुला है और साधना के लिए कोई बाहर जाए तो जाने का द्वार खुला है। __ संघबद्ध और संघमुक्त साधकों की मर्यादाएं भिन्न-भिन्न थीं। संघबद्ध साधक परस्पर सहयोग करते थे। संघमुक्त साधक निरालम्ब जीवन जीते थे। जीवन-व्यवहार में अनुशासन और एकरूपता - ये संघ की विशेषताएं हैं। भगवान् महावीर सिंधु-सौवीर की ओर जा रहे थे। गर्मी का मौसम था। मार्ग में गांव कम, जल कम और आवागमन बहुत कम। चारों ओर बालू के टीले ही टीले । भूखेप्यासे साधु भगवान् के साथ चल रहे थे। उस समय कुछ बैलगाड़ियां मिलीं। उनमें तिल लदे हुए थे। उनके मालिकों ने साधु-संघ को देखा और देखा कि साधु भूख से आकुल हो १. तीर्थंकर काल का पांचवां वर्ष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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