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________________ १०८ / श्रमण महावीर का प्रतिपादन हो नहीं सकता। भगवान् महावीर ने भी उसी तत्व का प्रतिपादन किया जिसकी अपेक्षा उनके सामने थी। निष्कर्ष की भाषा यह होगी कि सत्य का दर्शन दोनों का भिन्न नहीं था प्रतिपादन भिन्न भी था। __ भगवान् महावीर का साधना-मार्ग भगवान् पार्श्व के साधना-मार्ग से कुछ भिन्न था। इतिहास की स्थापना है कि भगवान् पार्श्व संघबद्ध साधना के प्रवर्तक हैं। उनसे पहले व्यक्तिगत साधना चलती थी। उसे सामूहिक रूप भगवान् पार्श्व ने दिया। अध्यात्म वस्तुतः वैयक्तिक होता है। वह संघबद्ध कैसे हो सकता है? सत्य का साक्षात् करने के लिए असीम स्वतंत्रता अपेक्षित होती है । संघीय जीवन में वह प्राप्त नहीं हो सकती। उसमें समझौता चलता है । सत्य में समझौते के लिए कोई अवकाश नहीं है। व्यवहार विवादास्पद हो सकता है। सत्य निर्विवाद है। जहां विवाद हो, वहां समझौता आवश्यक होता है। निर्विवाद के लिए समझौता कैसा? संघ में व्यवहार होता है और व्यवहार में समझौता। फिर भगवान् पार्श्व ने संघबद्ध साधना का सूत्रपात क्यों किया? भगवान् महावीर ने उसे मान्यता क्यों दी? वे भगवान् पार्श्व के अनुयायी नहीं थे, शिष्य नहीं थे। भगवान् पार्श्व ने जिस परम्परा का सूत्रपात किया उसे चलाना उनके लिए अनिवार्य नहीं था। फिर संघबद्ध साधना को उनकी सम्मति क्यों मिली? ___ भगवान् महावीर साधना के पथ पर अकेले ही चले थे। वर्षों तक अकेले ही चलते रहे । केवली होने के बाद वे संघबद्धता में गए। उनके भीतरी बंधन टूट गए तब उन्होंने बाहरी बंधन स्वीकार किया। वह बंधन असंख्य जनों को मुक्ति के लिए स्वीकृत था। यथार्थ की भाषा में वह बंधन नहीं, अवतरण था। मृण्मय पात्र में ज्योति अवतरित होती है। उसके अवतरण का प्रयोजन है प्रकाश, केवल प्रकाश। भगवान् पार्श्व ने साधना का संघीकरण एक विशेष संदर्भ में किया। वह था जीवन-व्यवहार का समुचित संचालन। कुछ साधक शरीर से अक्षम थे और कुछ सक्षम। कुछ साधक स्वस्थ थे और कुछ रुग्ण । कुछ साधक युवा थे और कुछ वृद्ध । दुर्बल, रुग्ण और वृद्ध साधक जीवन-यापन की कठिनाई का अनुभव करते थे। वे या तो जीवन चला नहीं पाते थे या जीवन चलाने के लिए गृहस्थों का सहारा लेते थे। भगवान् पार्श्व ने सोचा कि यदि दूसरे का सहारा ही लेना है तो फिर एक साधक दूसरे साधक का सहारा क्यों न ले? गृहस्थ के अपने उत्तरदायित्व हैं। उन्हें निभाना होता है । साधकों पर कोई पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं होता। अक्षम साधक की परिचर्या का उत्तरदायित्व समर्थ साधक के कंधों पर क्यों नहीं आना चाहिए? __ यह चिंतन संघीय साधना का पहला उच्छ्वास बना। उन्मुक्त साधना की कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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