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संघातीत साधना
भगवान् महावीर तीर्थंकर थे। जो व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार और प्रतिपादन - दोनों करता है, वह तीर्थंकर होता है । उस समय भारतीय धर्म की दो धाराएं चल रही थींएक शास्त्र की और दूसरी तीर्थंकर की।
मीमांसा दर्शन ने तर्क उपस्थित किया कि शरीरधारी व्यक्ति वीतराग नहीं हो सकता। जो वीतराग नहीं होता, वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता। जो सर्वज्ञ नहीं होता, उसके द्वारा प्रतिपादित शास्त्र प्रमाण नहीं हो सकता। इस तर्क के आधार पर मीमांसकों ने पौरुषेय ( पुरुष द्वारा कृत) शास्त्र का प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया। वे वेदों को अपौरुषेय ( ईश्वरीय) मानकर उनका प्रामाण्य स्वीकार करते थे ।
श्रमण दर्शन का तर्क था कि शास्त्र वर्णात्मक होता है, इसलिए वह अपौरुषेय नहीं हो सकता । पुरुष साधना के द्वारा वीतराग हो सकता है। वीतराग पुरुष कैवल्य या बोधि प्राप्त कर लेता है। कैवल्य प्राप्त पुरुष का वचन प्रमाण होता है।
बौद्ध साहित्य में महावीर, अजितकेशकंबली, पकुधकात्यायन, गोशालक, संजयवेलट्ठपुत्त और पूरणकश्यप - इन्हें तीर्थंकर कहा गया है। बुद्ध भी तीर्थंकर थे । शंकराचार्य ने कपिल और कणाद को भी तीर्थंकर कहा हैं ।
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जैन साहित्य में महावीर को आदिकर कहा गया है । परम्परा का सूत्र उन्हें चौबीसवां और इस युग का अन्तिम तीर्थंकर कहता है । वास्तविकता यह है कि प्रत्येक तीर्थंकर आदिकर होता है । वह किसी पुराने शास्त्र के आधार पर सत्य का प्रतिपादन नहीं करता। वह सत्य का साक्षात्कार कर उसका प्रतिपादन करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक तीर्थंकर पहला होता है, अन्तिम कोई नहीं होता ।
भगवान् महावीर ने अपने प्रत्यक्ष बोध के आधार पर सत्य का प्रतिपादन किया । भगवान् पार्श्व भी तीर्थंकर थे। उन्होंने अपने प्रत्यक्ष बोध से सत्य का प्रतिपादन किया । महावीर के प्रतिपादन का पार्श्व के प्रतिपादन से भिन्न होना आवश्यक नहीं है तो अभिन्न होना भी आवश्यक नहीं है । सत्य के अनन्त पक्ष हैं । प्रत्यक्षदर्शी उन्हें जान लेता है पर उन सबका प्रतिपादन नहीं कर पाता। ज्ञान की शक्ति असीम है, वाणी की शक्ति असीम है । इसलिए प्रतिपादन सीमित और सापेक्ष ही होता है । भगवान् पार्श्व को जिस तत्व के प्रतिपादन की अपेक्षा थी, उसी का प्रतिपादन उन्होंने किया, शेष का नहीं किया । समग्र १. ब्रहासूत्र अ० २, पा० १, अधि० ३, सू० ११ - शांकरभाष्य
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