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१०६ / श्रमण महावीर
१. कुछ लोग दूसरों से सेवा लेते हैं, पर देते नहीं । २. कुछ लोग दूसरों को सेवा देते हैं, पर लेते नहीं । ३. कुछ लोग सेवा लेते भी हैं और देते भी हैं ।
४. कुछ लोग न सेवा लेते हैं और न देते हैं ।
सामुदायिक जीवन में सेवा लेना और देना - यही विकल्प सर्वमान्य होता है । भगवान् ने इसी आधार पर सेवा की व्यवस्था की ।
कुछ साधु परिव्रजन कर रहे हैं। उन्हें पता चला कि इस गांव में कोई रुग्ण साधु हैं । वे वहां जाएं और सेवा की आवश्यकता हो तो वहां रहें। यदि आवश्यकता न हो तो अन्यत्र चले जाएं। रुग्ण साधु का पता चलने पर वहां न जाएं तो वे संघीय अनुशासन का भंग करते हैं और प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ।
भगवान् ने ग्लान साधु की सेवा को साधना की कोटि का मूल्य दिया । संघीय सामाचारी के अनुसार एक मुनि आचार्य के पास जाकर कहता - भंते! मैं आवश्यक क्रिया से निवृत्त हूं | अब आप मुझे कहां नियोजित करना चाहते है? यदि सेवा की अपेक्षा हो तो मुझे उसमें नियोजित करें। उसकी अपेक्षा न हो तो मुझे स्वाध्याय में नियोजित करें ।'
भगवान् ने कहा - 'जो ग्लान साधु की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है।' 'ग्लान साधु की अग्लानभाव से सेवा करने वाला मेरी भूमिका तक पहुंच जाता है, तीर्थंकर हो जाता है । '
इस प्रकार सामुदायिकता के तत्वों को समुचित मूल्य देकर भगवान् ने संघ और उसकी व्यवस्थाओं को प्राणवान् बना दिया ।
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