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________________ संघ-व्यवस्था / १०५ मेघकुमार भगवान् के पास दीक्षित हुआ। रात के समय सब साधुओं ने दीक्षापर्याय के क्रम से सोने के स्थान का संविभाग किया। मेघकुमार सबसे छोटा था, इसलिए उसे दरवाजे के पास सोने का स्थान मिला। भगवान् के साथ बहुत साधु थे। वे देहचिंता-निवारण स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रयोजनों से इधर-उधर जाने-आने लगे। कोई मेघकुमार के हाथ को छू जाता, कोई पैर को और को सिर को। इस हलचल में उसे सारी रात नींद नहीं आई। रात का हर क्षण उसने जागते-जागते बिताया। राजकुमार, कोमल शैया पर सोया हुआ और राज-प्रासाद के विशाल प्रांगण में रहा हुआ। कठोर शैया, दरवाजे के पास संकरा स्थान और आने-जाने वाले साधुओं के पैरोंहाथों का स्पर्श । इस विपरीत स्थिति ने मेघकुमार को विचलित कर दिया। वह सोचने लगा- 'मैं महाराज श्रेणिक का पुत्र और महारानी धारिणी का आत्मज था। मैं अपने मातापिता को बहुत प्रिय था। जब मैं घर में था तब ये साधु मेरा कितना आदर करते थे? मुझे पूछते थे। मेरा सत्कार-सम्मान करते थे। मुझे अर्थ और हेतु बतलाते थे। मीठे बोल बोलते थे। आज मैं साधु हो गया। इन साधुओं ने न मेरा आदर किया, न मुझे पूछा, न मेरा सत्कार-सम्मान किया, न मुझे अर्थ और हेतु बतलाया और न मधुर वाणी से मुझे संबोधित किया। मुझे एक दरवाजे के पास सुला दिया। सारी रात मुझे नींद नहीं लेने दी। इस प्रकार मैं कैसे जी सकूँगा? मैं इस प्रकार की नारकीय रातें नहीं बिता सकता। कल सूर्योदय होते ही मैं भगवान् के पास जाऊंगा, और भगवान् को पूछकर अपने घर लौट जाऊंगा।' इस घटना के बाद भगवान् महावीर ने नव-दीक्षित साधुओं को उस आनुक्रमिक व्यवस्था से मुक्त कर दिया। उन्हें अनेक कार्यों में प्राथमिकता दी। उनकी सेवा करने वाले तीर्थंकर बन सकते हैं, मेरी स्थिति को प्राप्त हो सकते हैं,३- यह घोषणा कर भगवान् ने नव-दीक्षित साधुओं की प्राथमिकता को स्थायित्व दे दिया और चिर-दीक्षित साधुओं की व्यवस्था दीक्षा-पर्याय के क्रमानुसार संविभागीय पद्धति से चलती रही। सेवा सेवा सामुदायिक जीवन का मौलिक आधार है। इस संसार में विभिन्न रुचि के लोग होते हैं भगवान् महावीर ने ऐसे लोगों को चार वर्गों में विभक्त किया है - १. तीर्थकर काल का पहला वर्ष । २. नायाधम्मकहाओ,१।१५२-१५४ । ३. नायाधम्मकहाओ,८।१२। ४. ठाणं, ४।४ १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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