SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ / श्रमण महावीर आयुष्मान् आनन्द का अभिवादन कर कहा, 'भंते आनन्द! मैं भगवान् से एक वर मांगती हूं। अच्छा हो भंते! भगवान् भिक्षुओं और भिक्षुणियों में परस्पर दीक्षा-पर्याय की ज्येष्ठता के अनुसार अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोड़ने और सत्कार करने की अनुमति दे दें।' आनन्द ने यह बात बुद्ध से कही। तब भगवान् बुद्ध ने कहा, 'आनन्द! इसकी जगह नहीं, इसका अवकाश नहीं कि तथागत स्त्रियों को अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोड़ने और सत्कार करने की अनुमति दें।' 'आनन्द! जिनका धर्म ठीक से नहीं कहा गया है, वे तीर्थिक (दूसरे मत वाले साधु) भी स्त्रियों को अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोड़ने और सत्कार करने की अनुमति नहीं देते तो भला तथागत स्त्रियों को अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोड़ना और सत्कार नहीं करना चाहिए, जो करे उसे उत्कट का दोष हो।' ___भगवान् महावीर का दृष्टिकोण स्त्रियों के प्रति बहुत उदार था। साधना के क्षेत्र में उन्हें पूर्ण स्वतंन्त्रता प्राप्त थी। समता का प्रयोग स्त्रीपुरुष - दोनों पर समान रूप से चलता था। अत: यह कल्पना करने को मन ललचाता है कि भगवान् ने अभिवादन की स्वतन्त्र व्यवस्था की। उसका आशय था - १. दीक्षा-पर्याय में छोटा साधु ज्येष्ठ साधु का अभिवादन करे। २. दीक्षा-पर्याय में छोटी साध्वी ज्येष्ठ साध्वी का अभिवादन करे। सामुदायिकता भगवान् महावीर वैयक्तिक स्वतन्त्रता के महान् प्रवक्ता और सामुदायिक मूल्यों के महान् संस्थापक थे। उनके सापेक्षवाद का सूत्र था - व्यक्ति-सापेक्ष समुदाय और समुदाय-सापेक्ष व्यक्ति। स्वतन्त्रता और संगठन - दोनों सापेक्ष सत्य हैं। एक की अवहेलना करने का अर्थ है दोनों की अवहेलना करना। इस सत्य को नियुक्तिकार ने इस भाषा में प्रस्तुत किया है'जो एक मुनि की अवहेलना करता है, वह समूचे संघ की अवहेलना करता है और जो एक मुनि की प्रशंसा करता है, वह समूचे संघ की प्रशंसा करता है।२ रुचि, संस्कार और विचार- ये व्यवस्था के सूत्र नहीं बन सकते। ये व्यक्तिगत तत्व हैं । दीक्षा-पर्याय यह सामुदायिक तत्व है। भगवान् ने इसी तत्व के आधार पर व्यवस्थाओं का निर्माण किया। मेघकुमार की घटना से इस स्थापना की पुष्टि हो जाती है। १. विनयपिटक, पृ० ५२२। २. ओघनियुक्ति, गाथा : ५२६, ५२७। एकम्मि हीलियंमि सव्वे ते हीलिया हुंति ॥ एकम्मि पूइयंमि सव्वे ते पूइया हुंति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy