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संघ-व्यवस्था / १०३
में ही भोजन करने लगे।
भगवान् साधना-काल में तंतुवायशाला में ठहरे हुए थे। उस समय गोशालक ने कहा- 'भन्ते! मैं आपके लिए भोजन लाऊं?' भगवान् ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। भगवान् गृहस्थ के पात्र में भोजन न करने का संकल्प कर चुके थे। इसीलिए भगवान् ने गोशालक की बात स्वीकार नहीं की। भगवान् भिक्षा के लिए स्वयं गृहस्थों के घर में जाते और वहीं खड़े रहकर भोजन कर लेते। तीर्थ-स्थापना के बाद भगवान् ने मुनि को एक पात्र रखने की अनुमति दी। अब मुनिजन पात्रों में भिक्षा लाने लगे। भगवान् के लिए भिक्षा लाने का अवकाश ही नहीं रहा। गणधर गौतम ने भगवान् के लिए भिक्षा लाने की व्यवस्था कर दी। मुनि लोहार्य इस कार्य में नियुक्त थे। भगवान् उनके द्वारा लाया हुआ भोजन करते थे। एक आचार्य ने उनकी स्तुति में लिखा है -
धन्य है वह लोहार्य श्रमण, परम सहिष्णु कनक-गौरवर्ण । जिसके पात्र में लाया हुआ आहार
भगवान् खाते थे, अपने हाथों से। अभिवादन
अभिवादन के विषय में भगवान् की दो दृष्टियां प्राप्त होती हैं- साधुत्वमूलक और व्यवस्थामूलक। पहली दृष्टि के अनुसार साधुत्व वंदनीय है। जिस व्यक्ति में साधुत्व विकसित है वह साधु हो या साध्वी, सबके लिए वंदनीय है। दूसरी दृष्टि के अनुसार भगवान् ने व्यवस्था की - दीक्षा-पर्याय में छोटा साधु या साध्वी दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ साधु या साध्वी का अभिनन्दन करे।
साधु-साध्वियों के परस्पर अभिवादन के विषय में भगवान् ने क्या निर्देश दिया, यह उनकी वाणी में उपलब्ध नहीं है। उत्तरवर्ती साहित्य में मिलता है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी आज के दीक्षित साधु को वंदना करे। क्योंकि धर्म का प्रवर्तक पुरुष है, धर्म का उपदेष्टा पुरुष है, पुरुष ज्येष्ठ है; लौकिक पथ में भी पुरुष प्रभु होता है, तब लोकोत्तर पथ का कहना ही क्या? ___ उस समय लोकमान्यता के अनुसार पुरुष की प्रधानता थी । बहुत सारे धार्मिक संघ भी पुरुष को प्रधानता देते थे। बौद्ध साहित्य से यह स्पष्ट होता है। महाप्रजापति गौतमी ने १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७१; आचारांगचूर्णि पृ० ३०९। २. साधनाकाल का दूसरा वर्ष। ३. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७१ । ४. आयारो, ९।१ । १९; आचारांगचूर्णि, पृ० ३०९; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७१ । ५. दसवेआलियं,९।३।३ । ६. उपदेशमाला,श्लोक १५,१६।
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