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ज्ञान- गंगा का प्रवाह
हर वर्ष पहले का युग श्रुति और स्मृति का युग था । लिपि का प्रचलन बहुत ही कम था । इसलिए उस युग में स्मृति की विशिष्ट पद्धतियां विकसित थीं । ग्रन्थ-रचना की पद्धति भी स्मृति की सुविधा पर आधारित थी, इसी परिस्थिति में सूत्र - शैली के ग्रन्थों का विकास हुआ, जिनका प्रयोजन था, थोड़े में बहुत कह देना ।
इन्द्रभूति आदि गणधरों पर भगवान् महावीर के विचार- प्रसार का दायित्व आ गया। अतः भगवान् के आधारभूत तत्वों को समझना उनके लिए आवश्यक था । इन्द्रभूति ने विनम्र वंदना कर पूछा 'भंते! तत्व क्या है?'
'पदार्थ उत्पन्न होता है । '
'भंते! पदार्थ उत्पत्तिधर्मा है तो वह लोक में कैसे समाएगा?'
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'पदार्थ नष्ट होता है । '
'भंते! पदार्थ विनाशधर्मा है तो वह उत्पन्न होगा और नष्ट हो जाएगा, शेष क्या रहेगा?"
'पदार्थ ध्रुव है।'
'भंते! जो उत्पाद-व्ययधर्मा है, वह ध्रुव कैसे होगा? क्या उत्पादव्यय और ध्रौव्य में विरोधाभास नहीं है ?'
'यह विरोधाभास नहीं, सापेक्ष दृष्टिकोण है कुटिया में अंधकार था। दीप जला कि प्रकाश हो गया। वह बुझा, फिर अंधकार हो गया। प्रकाश और अंधकार पर्याय हैं। इनका परिवर्तन होता रहता है। परमाणु ध्रुव हैं। उनका अस्तित्व तामस और तैजस - दोनों पर्यायों में अखंड और अबाध रहता है।'
इस त्रिपदी की त्रिपथगा ने गणधरों की बुद्धि को इतना सींचा कि उसके बीज अंकुरित हो गए। सभी गणधरों ने इस त्रिपदी के आधार पर बारह सूत्रों (द्वादशांगी) की रचना की । उसमें भगवान् महावीर के दर्शन और तत्वों को प्रतिपादन किया ।
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गणधरों ने सोचा - हम इतने दिन पर्यायों में उलझ रहे थे, मूल तक पहुंच ही नहीं पाए । मनुष्य, पशु, पक्षी – ये सब पर्याय हैं। मूल तत्व आत्मा है । आत्मा मूल है और ये सब पर्याय उसी के प्रकाश से प्रकाशित हैं, तब कोई हीन कैसे और अतिरिक्त कैसे ? कोई नीच कैसे और ऊंच कैसे ? कोई स्पृश्य कैसे और अस्पृश्य कैसे? ये सब पर्याय आत्मा के आलोक से आलोकित हैं, तब जन्मना जाति का अर्थ क्या होगा ? जाति वाद तात्विक कैसे
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