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________________ ९६/ श्रमण महावीर भगवान् महावीर गणतंत्र के वातावरण में पले-पुसे थे। सत्ता और अर्थ के विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त उनके रक्त में समाया हुआ था। वर्तमान में वे अहिंसा के वातावरण में जी रहे थे। उसमें केन्द्रीकरण के लिए कोई अवकाश नहीं है। भगवान् ने साधु-संघ को नौ गणों मे विभक्त कर उसकी व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण कर दिया। इन्द्रभूति आदि की गणधर के रूप में नियुक्ति की। प्रथम सात गणों का नेतृत्व एक-एक गणधर को सौंपा। आठवें का नेतृत्व अकंपित और अचलभ्राता तथा नौवें गण का नेतृत्व मेतार्य और प्रभास को सौंपकर संयुक्त नेतृत्व की व्यवस्था की। जो लोग साधु-जीवन की दीक्षा लेने में समर्थ नहीं थे, किन्तु समता धर्म में दीक्षित होना चाहते थे, उन्हें भगवान् ने अणुव्रत की दीक्षा दी। वे श्रावक-श्राविका कहलाए। भगवान् महावीर साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका- इस तीर्थ-चतुष्टय की स्थापना कर तीर्थंकर हो गए। इतने दिन भगवान् व्यक्ति थे और व्यक्तिगत जीवन जीते थे, अब भगवान् संघ बन गए और उनके संघीय जीवन का सिंहद्वार खुल गया। इतने दिन भगवान् स्वयं के कल्याण में निरत थे, अब उनकी शक्ति जन-कल्याण में लग गई। ___ भगवान् स्वार्थवश अपने कल्याण में प्रवृत्त नहीं थे। यह एक सिद्धान्त का प्रश्न था। जो व्यक्ति स्वयं खाली है, वह दूसरों को कैसे भरेगा? जिसके पास कुछ नहीं है वह दूसरों को क्या देगा? स्वयं विजेता बनकर ही दूसरों को विजय का पथ दिखाया जा सकता है। स्वयं बुद्ध होकर ही दूसरों को बोध दिया जा सकता है। स्वयं जागृत होकर ही दूसरों को जगाया जा सकता है। भगवान् स्वयं बुद्ध हो गए और दूसरों को बोध देने का अभियान शुरू हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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