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तीर्थ और तीर्थंकर / ९५ एक-एक विद्वान् आते गये और भगवान् से संबोधन और अपनी धारणा में संशोधन पाकर दीक्षित होते गये। उनकी धारणाएं थीं
व्यक्त- पंचभूत का अस्तित्व नहीं है। सुधर्मा- प्राणी मृत्यु के बाद अपनी ही योनि में उत्पन्न होता है। मंडित- बंध और मोक्ष नहीं है। मौर्यपुत्र- स्वर्ग नहीं है। अकंपित- नरक नहीं है। अचलभ्राता- पुण्य और पाप पृथक् नहीं हैं। मेतार्य- पुनर्जन्म नहीं है। प्रभास- मोक्ष नहीं है।
भगवान् ने परिषद् के सम्मुख धर्म की व्याख्या की। उसके दो अंग थे - अहिंसा और समता। भगवान ने कहा, 'विषमता से हिंसा और हिंसा से व्यक्ति के चरित्र का पतन होता है। व्यक्ति-व्यक्ति के चरित्र-पतन से सामाजिक चरित्र का पतन होता है । इस पतन को रोकने के लिए अहिंसा और उसकी प्रतिष्ठा के लिए समता आवश्यक है।'
हिंसा, घृणा, पशुबलि और उच्च-नीचता के दमनपूर्ण वातावरण में भगवान् का प्रवचन अमा की सघन अंधियारी में सूर्य की पहली किरण जैसा लगा। जनता ने अनुभव किया कि आज इस प्रकाश की अपेक्षा है। महावीर जैसे समर्थ धर्मनेता के द्वारा वह पूर्ण होगी। उसकी संपन्नता में अपनी आहुति देने के लिए अनेक स्त्री-पुरुष भगवान् के चरणों में समर्पित हो गए।
चन्दनबाला साध्वी बनने के लिए भगवान् के सामने उपस्थित हुई।
वैदिक धर्म के संन्यासी स्त्री को दीक्षित करने के विरोधी थे। श्रमण-परम्परा में स्त्रियां दीक्षित होती थीं, भगवान् पार्श्व की साध्वियां उस समय विद्यमान थीं। किन्तु उनका नेतृत्व शिथिल हो गया था। उनमें से अनेक साध्वियां दीक्षा को त्याग परिव्राजिकाएं बन चुकी थीं। __भगवान् महावीर स्त्री के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना चाहते थे। वैदिक प्रवक्ता उसके प्रति हीनता का प्रसार करते थे। भगवान् को वह इष्ट नहीं था। उन्होंने साध्वी-संघ की स्थापना कर स्त्री जाति के पुनरुत्थान के कार्य को फिर गतिशील बना दिया।
भगवान् ने चंदना को दीक्षित कर उसे साध्वी-संघ का नेतृत्व सौंप दिया। साधुसंघ का नेतृत्व इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वानों को सौंपा। १. आवश्यकचूर्णि गाथा ६४४-६६०; आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३३४-३३९ ।
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