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________________ पुरुषोना पगले चाली ' महाजनो येन गतः स पन्थाः ' ए न्यायने अनुसरीने उद्यापन प्रसंगे बे-चार प्रतियो अगर दरेक वर्षे ज्ञान साधन वृद्ध्यर्थे प्रतिओ लखवा-लखाववानो रिवाज विशेषे चालु करवानी जरुरत छ । "जाग्या त्यारथी सवार", "टीपे टीपे सरोवर भराय", "कांकरे कांकरे पाळ बंधाय"; ए कहेवतोने लक्ष्यमा राखी चतुर्विधसंघस्थित-अग्रगण्य व्यक्तिओ तन, मन अने धनने समर्पण करे; अने लेखनपद्धतिने वेग आपवा कटिबद्ध थशे तो भावि प्रजाना अन्तरना आशीर्वाद मेळववापूर्वक पुण्यानुबन्धिपुण्यना भण्डार भरी शकशे ए नग्नसत्य स्वीकारवा लायक छे. लेखनपद्धतिने वेग आपवा माटे आ अंगुलिनिर्देश योग्य सूचक वाक्यो छे, वधु जिज्ञासुओने उपरना ग्रन्थो वांचवाविचारवानी भलामण करवामां आवे छ । विशेषमा रक्षण करनाराओए ग्रन्थोनुं शरदीथी, उंदरथी, उधइथी रक्षण करवु जरुरी छे, चोंटी जता पुस्तकोने अने चोंटी गयेला पानांओने खोलवानी कळा वडीलो पासेथी शिखी लेवी जोइए, हस्तलिखित प्रतोमा गुंदरमिश्रित शाही होवाथी अने भेज लागवाथी चोंटी गयेला पानांओने छुटां करवामां खास करीने गुलालनो उपयोग विशेषपणे करवो जोइए। संरक्षणकर्ताओने उहेशीने लेखकोए पण प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थना अन्तमा केटलांएक संस्कृत पद्योद्वारा सूचना करेली होय छे, जेमके जले रक्षेत स्थले रक्षेद्रक्षेच्छिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्यं, एवं वदति पुस्तकम् ॥ १॥ अग्ने रक्षेजलाद्रक्षेद्, मृषकेभ्यो विशेषतः।। कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ॥ २॥ आ उपरथी कहेवानुं एटलं ज छे के-ज्ञानरसिक आत्माओए श्रुतज्ञानना साधनोनी वृद्धि थती रहे अने संरक्षणता वधे तेवा प्रबन्धो योजाया करे तो करनारा प्रत्ये भविष्यमां भाविप्रजाना भव्य-आशीर्वाद जरुर उभरायां करशे । प्राचीन ग्रन्थना थतां दर्शनने उद्देशी प्रारम्भेला आ प्रकरणने अत्र पूरुं करी हवे आपणे अवचूर्णिनी मूळ वात करीए। आ ग्रन्थ ताडपत्रीय-पत्रो पर आलेखन करायेलो छे, श्रीसिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासनना सम्पादन प्रसंगे खम्भात मुकामेथी बीजा ताडपत्रीय प्रन्थो साथे आ अवचूर्णि-ग्रन्थ-प्रका- ग्रन्थ लाववामां आव्यो हतो, एनां पृ. १ थी २१८ छे । ए ग्रन्थ शननी अनिवार्य- लखायांने ७३८ वर्ष उपरान्त समय थई गयो होवाथी एनी अवस्था जरुरीयात. तहन जीर्ण अने नाजुक निहाळीने 'एनुं मुद्रण करावq अत्यन्त जरुरनु छे' एम लक्ष्यमां आव्युं, अने ते बाबतना प्रयत्ननी शरुआत करवामां आवी। १-जूओ-श्रीशान्तिनाथताडपत्रीय-प्राचीन जैनप्रन्थभण्डार, खम्भात-डाबडो नं. ११५।५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003041
Book TitleSiddha Hemchandra Shabdanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasagar Gani
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1948
Total Pages396
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size21 MB
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