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त्रयोदशः प्रकाशः]
षष्ठ्येकवचनान्तानि विशेषणान्याचष्टे-- असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः॥ ६ ॥ ___ आ श्लोकमां परस्पर विरुद्ध विशेषणो बताव्या छे. संगरहित होय ते लोकना स्वामी न होय, ममता रहित होय ते कोईना उपर कृपा न करे; अने मध्यस्थ-उदासीन होय ते अन्यनुं रक्षण न करे. परन्तु आप तो सर्व संगना त्यागी होवा छतां जगतना लोकोथी सेव्य होवाना कारणे विश्व जनना स्वामी छो. ममता रहित होवा छतां पण जगतना सर्व प्राणीओ उपर कृपावाळा छो. रागद्वेषनो नाश करेलो होवाथी मध्यस्थ-उदासीन होवा छताए एकान्त हितकर धर्मनो उपदेश देवाथी संसारथी त्रास पामेला जगतना जीवोना रक्षक छो. उपरोक्त विशेषणवाळा आपनो हुँ चिह्न-कुग्रहरूपी कलंक रहित किंकर-नोकर छु. (जे नोकर होय ते तरवार, बंदुक आदि कांई चिह्नोवाळो होय छे.) (६) __ अव० असं०-हे वीतराग ! निर्मोहस्य निखिलनरस्वामिनः, निर्ममस्य दयावतः, मध्यस्थस्योदासीनस्य विश्वरक्षितुस्तवानको निष्कलङ्कः, पक्षे ललाटादौ त्रिशूलाद्यङ्करहितः सेवकोऽस्मि ॥६॥
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