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________________ ६०] प्रबन्धचिन्तामणि [द्वितीय प्रकाश [८० ] मनोहर युवतियाँ, अनुकूल स्वजन, अच्छे बांधव और प्रेममय वचन बोलनेवाले नौकर हैं। [ द्वार पर ] हाथियोंके झुंड गरज रहे हैं, और तरल ( तेज ) घोड़े [ हिनहिना रहे हैं ] इस प्रकार राजा जब यह वारंवार बोल रहा था और चौथे चरणके लिये अक्षर ढूंद रहा था, उसी समय कोई वेश्याव्यसनी विद्वान् , जो अपनी वेश्याके वचनसे रानीके दो कुण्डल चुरानेके लिये राजाके महलमें चौर बन कर घुसा था, उसने उन तीन चरणोंको सुना। तब उसने सोचा कि 'जो होना हो सो हो, पर जो चौथा चरण मनमें स्फुरित हो आया है उसे कैसे दबा रखू ? ' और वह बोला 'आंखोंके मीच जाने पर [ इनमेंसे फिर ] कुछ भी नहीं है।' राजाने सन्तुष्ट हो कर कुण्डलके साथ उसको मनोवांछित दिया । ७४) अन्य समय, एक बार, वही राजा, राजपाटीसे लौट कर नगरके गोपुरमें [ जब आ रहा था तब] एक बिना लगामका घोड़ा दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा, जिसे देख कर लोक आकुल-व्याकुल हो कर इधर उधर भागने लगे। उनमें एक तक विक्रय करनेवाली ग्वालिन भी सपाटेमें आ गई और उसके सिरपर जो छाँछसे भरी हुई हंडिया थी वह नीचे गिर पड़ी । उसमेंसे नदीके प्रवाहकी तरह गोरस निकल कर बह चला, जिसे देख कर उसका मुख-कमल खिल उठा। भोज ने यह देख कर पूछा कि विषादके समय भी तुम्हारे इस हर्षका कारण क्या है ? राजाके यह पूछने पर वह बोली १२०. राजाको मार कर, पतिको सांपसे काटा हुआ देख कर, मैं विधिवश परदेशमें वेश्या हुई । पुत्रको [ अपने साथ ] वेश्यागामी पा कर मैं चितामें प्रविष्ट हुई। इसके बाद, गोपकी गृहिणी बनी; तो फिर आज मैं इस तक्रके लिये क्या शोच करूं ? [ वह इस प्रकार बोली । उस प्रदेशसे एक बड़ी नदी प्रादुर्भूत हुई, जिसका नाम म ही पड़ा।] इस प्रकार गोपगृहिणीका यह प्रबंध समाप्त हुआ। ७५) एक बार, प्रातःकाल, श्री भोज एक उपशिला (छोटे पत्थर ) को लक्ष्य करके आनन्दपूर्वक धनुर्वेदका अभ्यास कर रहा था, उसी समय श्वे ताम्बर वेशधारी श्री चंद ना चार्य ने अपनी तत्कालोत्पन्न प्रतिभाकी सुन्दरतासे इस उचित पद्यको कहा १२१. यह खण्डित शिला चाहे खण्डित हो जाओ, पर हे राजन् ! इसके बाद क्रीड़ा करना बस कर दीजिये; और देव ! प्रसन्न हो कर पाषाणवेधके व्यसनकी यह रसिकता छोड़िये । क्यों कि अगर यह क्रीड़ा बढ़ी तो बड़े बड़े पर्वतोंको वेध करोगे और यह धरती ध्वस्ताधारा ( आधार जिसका ध्वंस हो गया है ) हो कर, हे नृपतिलक ! पातालके मूलमें चली जायगी। उनकी इस प्रकारकी कविताके चमत्कारसे चमत्कृत हो कर भी राजाने कुछ सोच कर कहा-' सर्वशास्त्र-पारंगत हो कर भी आपने जो ' ध्वस्ता धारा ' यह पढ़ा उससे कोई उत्पात सूचित होता है।' भोज और कर्णका संघर्ष । ७६) इधर, डा ह ल देश के राजाकी दे म ति नामक रानी महा योगिनी थी। एक बार, जब कि वह आसन्न प्रसवा थी, सदैव ज्योतिषियोंसे यह पूछा करती थी कि 'किस शुभ लग्नमें उत्पन्न पुत्र सार्वभौम ( सम्राट् ) होता है !' इसके बाद, उन्होंने अच्छी तरह विचार कर बताया कि जब शुभ ग्रह उच्च राशि, और केन्द्र (प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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