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________________ प्रकरण ७४-७६ ] भोज और कर्णका संघर्ष [ ६१ चतुर्थ, सप्तम, और दशम) में हों, तथा प प ग्रह तृतीय, षष्ठ और एकादशमें हों, तो जो पुत्र होगा वह सार्वभौम राजा होगा। यह सुन कर, निश्चित प्रसव समयके बाद, १६ पहर तक, योगकी युक्तिसे गर्भस्तंभ करके ज्योतिषीके निर्णीत लग्नमें कर्ण नामक पुत्रको उसने जन्म दिया । उस गर्भधारणके दोषसे पुत्रप्रसवके अनन्तर आठवें पहर में वह मर गई । सुलग्न में जन्म होनेके कारण कर्ण ने अपने पराक्रमसे दिग्मण्डलको आक्रान्त किया । एक सौ छत्तीस राजाओंके, भौरे के समान काले-काले केश - कलापसे उसके दोनों विमल चरण-कमल पूजे जाते थे और चारों प्रकारकी राजविद्याओं में परम प्रवीणता प्राप्त करके, विद्यापति प्रभृति महाकवियोंसे वह स्तुत होता था । जैसे [ एक बार कर्पूर कवि ने कहा- ] ? 3 १२२. + जिनके मुँहमें तो 'हारावाप्ति" है, आँखोंमें 'कंकणभार' है, नितंबमें 'पत्रावली' है, और दोनों हाथ 'सतिलक' ' है — हे श्री कर्ण ! तुम्हारे शत्रुओंकी स्त्रियोंको, विधिवश, वनमें, इस समय ४ भूषण पहनने की यह कैसी [ विलक्षण ] राति ग्रहण करनी पड़ी है ! ऐसा कहने पर चतुर चक्रवर्ती राजाने कहा - 'यदि ' विधिवश ' ऐसा हुआ तो फिर वर्णनीय राजाका क्या रहा ? दैवने भी जिस बातकी चिन्ता नहीं की वह हो ।' अतएव राजाको इसमें कुछ भी चमत्कार नहीं जान पड़ा और उसे विना कुछ दिये ही विदा कर दिया । घर जाने पर भार्याने पूछा- 'क्या दिया राजाने ? ' उसने कहा - ' वही वृत्तस्वरूप ! ' ( अर्थात् श्लोकमें जो वर्णन किया गया है वही स्वरूप ) वह बोली - यदि ' विधिवशात् ' की जगह ' तव वशात् ' कहा गया होता तो वह सब कुछ दिलाता । तब फिर ना चिराज कवि कर्ण नृपकी स्तुति की । जैसे 1 [ ८१ ] गोपियोंके पीन पयोधरसे विष्णुका हृदय [ रूपी कमल ] आहत हो गया है इसलिये मैं समझता हूँ कि लक्ष्मी कमलकी आशंकासे तुम्हारे नेत्रोंमें ही अब विश्राम कर रही है । इसलिये हे श्रीमन् कर्ण नरेश ! जहाँ तुम्हारी भ्रूलता चलती है वहाँ भयभ्रान्त हो कर दारिद्र्य की मुद्रा टूट जाती है । इससे अत्यन्त तुष्ट हो कर राजाने हाथके सांकले इत्यादिके उचित दानसे उसे पुरस्कृत किया । इस प्रकार जब वह मार्गमें आ रहा था, तो कर्पूर कवि ने स्त्रीसे कहा कि राजाने इसे जो कुछ दिया है उसे, अब मैं अपने घर आता हूं । यह कह कर वह उसके सामने गया । [ २२ ] 'हे कन्ये ! तूं कौन है ? ' - 'कर्पूर कवि ! क्या तूं मुझे नहीं पहचानता ?' - 'क्या भारती है ? ' ' सच है ' - ' तूं विधुरा क्यों है ? ' - 'मैं लूट ली गई ! ' - 'माँ किसके द्वारा ?' - 'दुष्ट विधाता के द्वारा '' उसने तुम्हारा क्या ले लिया ? ' ' मुञ्ज और भोज रूपी दोनों आँख '-' तो जी कैसे रही हो ? ' - ' क्यों कि दीर्घायु श्री नाचिराज कवि अन्धेकी लकड़ी रूप बने होनेसे । ' नाचिराज कविने इस काव्यसे सन्तुष्ट हो कर कर्ण राज से जो कुछ स्वर्ण, दुकूल आदि प्राप्त किया था वह सब कर्पूर कविको दे दिया । कर्ण नरेन्द्रने यह सुना, तो कर्पूर को बुलाके पूछा कि - ' हे कवे ! भोज के विद्यमान रहते 'मुअ-भो ज ' यह पद कैसे उदाहृत किया ? ' वह बोला- ' महाराज, जल्दी में 'हर्षमुख' की जगह मुख-भोज मुँहसे निकल गया । ' तत्र राजाने सोचा कि यह बात भोज का अमंगल सूचित करती है । [ ८३ ] श्रीमत् कर्ण नरेन्द्रने मान और विभवसे सत्र याचकोंका मनोरथ पूर्ण कर दिया, इसलिये चिन्तामणिके आँगनमें शिखावाली दूर्वायें हमेशा श्यामल हो रही है । कल्पतरुके शून्य तलमें निर्भीक हो कर पशु-पक्षी खेल रहे हैं । और कामधेनु निकट ही स्कंदको बैठा कर आलससे निद्रा ले रही है । + इस पद्य में शब्दोंके श्लेष द्वारा दो भिन्न अर्थ निकाले गये हैं । १ हारावाप्ति = हारकी प्राप्ति और 'हा' ऐसे 'राव शब्द की प्राप्ति । २ कंकण - हाथका आभूषण और कं=पानी उसका कण = अश्रुबिंदु । यों तो पत्राली स्तन पर बांधी जाती है, लेकिन इन स्त्रियोंको तो पहनने के लिये पूरे वस्त्र नहीं है इस लिये पत्रावलीसे नितंब प्रदेशको ढांकना पड़ा है । ४ सतिलक तो कपाल होता है लेकिन इन स्त्रियोंके तो अब हाथ ही सतिलक=तिलवाले हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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