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________________ ५६ ] प्रबन्धचिन्तामणि [द्वितीय प्रकाश ६६ ) इसी अवसर पर, मिथ्यादृष्टि वालोंके धर्मको इस प्रकार विजयी होते देख, सम्यग्दर्शन ( जैन ) द्वेषी कुछ प्रधान पुरुषोंने राजासे कहा-' यदि जैनधर्ममें भी कोई ऐसा प्रभाव बतलाने वाला हो तो श्वेतांबर स्वदेशमें रहे, नहीं तो शीघ्र ही निर्वासित कर दिये जायँ ।' इस प्रकार उनके वचनके पश्चात् श्री मा न तुंगा चार्य को वहाँ बुलाकर राजाने कहा कि अपने देवताओंके कुछ चमत्कार दिखाइये । वे बोले- हमारे देवता तो मुक्त हैं, उनके चमत्कार क्या हो सकते हैं; तथापि उनके किंकर देवताओंके प्रभावका आविर्भाव देखिये । ' इस प्रकार कहके अपने शरीरको चँवालीस हथकड़ियों और बेड़ियोंसे कसवाकर उस नगरके श्रीयुगादि देवके मंदिरके पिछले भागमें बैठ गये । ' भक्तामर ' इस आदि वाक्यवाली मंत्रगर्भ नई स्तुति बनाने लगे । इसके प्रति काव्यके अन्तमें एक एक बेड़ी टूटती जाती थी। बेड़ियोंकी संख्याके बराबर काव्य बनाकर स्तव पूरा किया और उस मंदिरको अपने सम्मुख परिवर्तित कर शासनका प्रभाव दिखाया। -इस प्रकार श्रीमानतुङ्गाचार्यका प्रबन्ध पूर्ण हुआ। गूर्जर देशकी विदग्धताका प्रबन्ध । ६७) बादमें, किसी एक अवसर पर, राजा अपने देशके पंडितोंके पांडित्यकी प्रशंसा करता हुआ गूर्जर देश के पण्डितोंको अविदग्ध ( असहृदय ) कह कर निन्दा करने लगा। इस पर वहांके स्थानीय [ गूर्जर ] पुरुषने कहा कि हमारे देशके तो स्त्रियाँ और ग्वाला लोकके साथ भी आपके देशका कोई बड़ा पंडित तक समानता नहीं कर सकता। जब उसने ऐसी बात कही तो राजा उसे मिथ्याभाषी बनानेकी इच्छासे अपना मनोभाव छिपा कर, कुछ दिन तक चुप-चाप रहा। इधर उस स्थान-पुरुषने भीम को यह वृत्तान्त कहलाया। भीम ने स्वदेशकी सीमा पर कुछ रसिक वेश्याओं और कुछ ग्वाल-वेष-धारी पंडितोंको नियुक्त किया। कोई वैसा गोप प्रताप दे वी नामक वेश्याको साथ लेकर रसिक जनोंके लिये अमृतकी सार-भूत ऐसी धारा नगरी के निकट आया । वहाँ उस वेश्याको सजानेके लिये छोड़कर, सबेरे ही गोप [राजसभाके समीप पहुँचा ] राजदौवारिकने उसको राजाके सम्मुख उपस्थित किया । श्री भोज ने कहा कि ' कुछ कहो ' इस पर ११०.हे भोज दे व ! यह तुम्हारे गलेमें जो कण्ठा पडा है वह मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मालूम दे रहा है कि तुम्हारे मुखमें जो सरस्वती और वक्षःस्थलमें लक्ष्मी वस रही है उन दोनोंकी सीमा इसने विभक्त कर दी है। इस प्रकार उसकी उक्ति सुनकर विस्मयसे मनमें चकित होकर उसके सामने देख रहा था कि उतनेमें उस उत्तम परिच्छद धारिणी वेश्याको भी देखा। उसके प्रति भोज ने यह आकस्मिक वचन कहा- यहाँ क्या !'। इसके अनन्तर वह बुद्धि-निधि सुमुखी, जो स्वजाति ( स्त्री जाति) की होनेके कारण मानों सरस्वतीकी खास कृपा-पात्र थी और शरीरधारिणी प्रतिभाकी भाँति [दिखाई देती थी ], राजाके गंभीर वचनके भी तत्त्वको समझकर उसको [ प्राकृत भाषामें ] जवाब दिया कि-' पूछते हैं ' उसके इस उचित वचनसे भोज का मुख-कमल विकसित हो गया। उसको कोशाध्यक्षसे तीन लाख दिलवानेको कहा पर वह ( कोशाध्यक्ष ) इस तत्त्वको न समझकर तीन बार कहनेपर भी चुप-चाप बैठा रहा। जब वह नहीं देने लगा तो राजा प्रकाश ही बोला, कि देशको परिस्थिति और स्वभावकी कृपणताके कारण इसे तीन ही लाख दिला रहा हूं, यदि उदारताके साथ दिया जाय तो इतना बड़ा साम्राज्य भी देना कम ही है। इस आदेशको सुनकर समस्त राजलोकने राजासे प्रार्थना की कि उन दो वाक्योंका अन्वय क्या है ? इस पर वह बोला'इसके कटाक्षोंकी दोनों अंजन रेखाओंको कान तक फैली हुई देखकर मैंने कहा कि 'यहाँ क्या ?' इसने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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