SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण ६५-६७ ] मयूर, बाण और मानतुङ्गाचार्यका प्रबन्ध [५५ मयूर, बाण और मानतुङ्गाचार्यका प्रबन्ध । ६५) मयूर और बाण नामक दो साला-बहनोई पंडित, अपनी विद्वत्तासे एक दूसरेके साथ स्पर्द्धा करते हुए भोज की सभामें लब्धप्रतिष्ठ हुए। एक बार बा ण पण्डित बहनसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातको द्वारपर सो गया । ( उस रातको रूठी हुई] उसकी मानवती बहनको बहनोई द्वारा मनाती सुना । [बाण ने ] उसपर ध्यान दिया तो उसने यह सुना १.९. हे तन्वंगी, प्रायः [सारी ] रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीणसा हो रहा है, यह प्रदीप मानों निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानकी सीमा तो प्रणाम करने तक ही होती है, अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो ?[काव्यके ] ये तीन पद वारंवार उसे कहते सुनकर [ वह चोथा पाद इस प्रकार बोल उठा-] 'हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी [ उनके जैसा ] कठिन हो गया है !" भाईके मुँहसे यह चौथा पाद सुनकर वह लजित हो गई और कुपित होकर उसे शाप दिया कि 'तुम कुष्ठी हो!' उस पतिव्रताके व्रतके प्रभावसे उसे उसी समय कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया। मयूर ने मयूरकी भाँति कोमल वाणीसे उसे 'वर को दी' यह प्राकृत शब्द कहा । इसपर चतुर चक्रवर्ती राजाने उसकी ओर विस्मयके साथ देखा । प्रसंगान्तर उठनेपर बा ण ने देवताराधनका विचार किया और लज्जित भावसे वहाँसे उठकर नगरकी सीमापर गया। वहाँ पर एक स्तंभ खडा कर नीचे खदिर काष्ठके अंगारसे भरा हुआ कुंड बनवाया । स्तंभके सिरेपर लटकाए हुए छींकेपर स्वयं बैठ गया। वहां सूर्यदेवकी स्तुति बनाना प्रारम्भ किया। प्रति काव्यके अन्तमें छींकेकी एक एक रस्सी चाकूसे काटने लगा । इस प्रकार पाँच काव्योंके अन्तमें उसने पाँच रस्सियां काट दी। इसके बाद छींकेके अग्रभागमें लगा रहकर उसने छडे काव्यसे सूर्यदेवको प्रत्यक्ष किया। उसके प्रसादसे तत्काल ही वह तेजवान् काञ्चनकी कान्तिवाला हो गया। दूसरे दिन उत्तम वर्णके चन्दनका शरीरमें लेप करके और दिव्य श्वेत वस्त्र लपेट कर [ राजसभामें ] गया। उसके शरीरसौन्दर्यको [ पूर्ववत् ] राजाने देखा तो मयूर ने सूर्यके वरका फल बताया। यह सुनकर बा ण ने बाणकी भाँति इस वाणीसे मयूर का मर्म वेध किया कि ' यदि देवाराधन इतना सरल है तो तुम भी कुछ कोई विचित्र कार्य करके दिखा ओ न ?' उसके ऐसा कहनेपर मयूरने जवाब दिया कि'नीरोग आदमीको वैद्यसे क्या काम ? फिर भी तुम्हारी बातको सच कर दिखानेके लिए अपने हाथ-पैर छुरीसे काट देता हूँ और तुमने तो छठे काव्यमें सूर्यको प्रसन्न किया है, परन्तु मैं प्रथम काव्यके छठे अक्षरमें ही भवानीको प्रसन्न करता हूँ।' यह प्रतिज्ञा कर सुखासनपर बैठकर चण्डिकाके मंदिरके पिछवाडे जाकर बैठ गया । वहाँ ' मा भांक्षीविभ्रमम् ' (ऐसे आदि वाक्यवाली चण्डिका-स्तुति प्रारम्भ की) इसके छठे अक्षरपर ही चण्डिका प्रत्यक्ष हुई और उसकी कृपासे उसका शरीरपल्लव प्रत्यग्र तक सुन्दर हो गया। अपने सामने ही उस प्रसादको देखकर राजा और अन्य राजपुरुषोंने सामने आकर उसका जय-जय-कार किया और बड़े समारोह के साथ उसका नगरमें प्रवेश कराया। 'वरकोढी' यह प्राकृत शब्द द्वि-अर्थी है। 'वर कोढी' और 'वरक ओढी' ऐसा इसका पदच्छेद किया जाता है। पहले पदमें वर=अच्छा, कोढी-कुष्ठी अर्थात् अच्छे कुष्ठी ( कुष्ठरोगी) बने ऐसा व्यंग्य है। दूसरे पदमें वरक-शाल ओढी-ऊपर झाली अर्थात् 'शाल ओढकर आये हो!'ऐसा आश्चर्यद्योतक वचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy