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प्रबन्धचिन्तामणि
[ द्वितीय प्रकाश
विद्याओंका कुछ अभ्यास करके विजया नामक अपनी नव युवती कन्याके साथ श्री भोज की सभाको सुशोभित करती हुई श्री भोज से बोली
१०६. श्रीमन्महाराज भोज की शूरताकी सीमा तो शत्रुओंके कुलोंका क्षय करने तक है, यशकी सीमा ठेठ ब्रह्माण्डरूपी भाण्ड तक है, पृथ्वीकी सीमा समुद्रके तट तक है, श्रद्धाकी सीमा पार्वती-पति (शिव) के चरणद्वन्द्व में प्रणाम करने तक है, लेकिन बाकी जो अन्य गुण हैं उनकी तो कोई सीमा ही नहीं है ।
इसके बाद विनोद प्रिय राजाने कुच वर्णनके लिए विजया को आज्ञा दी । वह बोली१०७. उस पतले शरीरवाली रमणीके स्तनमण्डलकी यदि, ऊँचाई चिबुक तक है; उत्पत्ति भुजलताके मूल तक है; विस्तार हृदय तक है और संहति कमलिनी सूत्र तक है; वर्णकी सीमा स्वर्ण की कसौटी तक है; और कठिनताकी सीमा हीरेकी खानवाली भूमि तक है; तो उसका लावण्य अस्त समय (जीवनकी समाप्ति ) तक है
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उसके इस वर्णन को सुनकर, उस आधे कवि राजाने कहा
[ ७५ ] ' उस कमल नयनीके दोनों कुचोंका क्या वर्णन किया जाय ? ' - इसपर उसने आधा श्लोक यह कहा - सात द्वीप के ' कर ' (महसूल) ग्रहण करनेवाले आप जैसे जहाँ ' कर' (हाथ) देते हैं । राजाने एक और आधा काव्य पढा
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' आघात किये हुए मुरजके समान गंभीर ध्वनिवाले और भ्रमरोंके समान नील [ वर्णवाले ] बादलोंसे वह दिशा रुद्ध-सी क्यों हो गई है ? '
इसके उत्तरार्धमें उसने कहा
[' इस लिये कि ] प्रथम विरहके खेदसे म्लान बनी हुई बाला, जिसका मुख आँखोंके उगले हुए आँसुओं से धो गया है, वह वहाँ वास करती है ।
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१०८. ' जगत्को आनंद देनेवाले उस सुरतको नमस्कार है ' - इस प्रकार राजाके कहने पर [ क्यों कि ] ' जिसके आनुषंगिक फल हे भोजराज, आप जैसे पुरुष हैं ।' विजया के इस विजयशाली वाक्यको सुनकर उसे [ अपनी ] भोगिनी बनाई । एक बार उसने होनेपर [ काव्य ] पढ़ा
राजाने लज्जित होकर मुँह नीचा कर लिया । तब राजाने जालके भीतर से आते हुए चन्द्र-कर (किरण) के स्पर्श
[ ७७ ] हे कलंकके शृंगारवाले चन्द्र ! बस करो इस करस्पर्शनकी लीलाको । तुम तो शिवके निर्माल्य हो, इससे तुम्हारा स्पर्श करना उचित नहीं ।
[ ७८ ] अनुद्यम परायण ( आलसी ) राजाओंके समान, क्षणभर में तारायें क्षीण हो गईं; ग्राम्य जनों की सभा में पंडितकी पण्डिताईके समान चन्द्रमाकी कान्ति म्लान हो गई; जैसे मानों पारेने सोना खा लिया हो वैसी प्राची दिशा पिंगलवर्णा हो गई और निर्धन पुरुषोंके गुणकी तरह ये दीपक भी शोभा नहीं प्राप्त करते ।
[ ७९ ] कलिकाल में स्वजनोंकी भाँति तारायें विरल हो गईं, मुनिके मनकी नाईं आकाश सर्वत्र प्रसन्न हो गया, सज्जनोंके चित्तसे दुर्जनकी तरह अन्धकार दूर हो रहा है और निरुद्यमियोंकी लक्ष्मीकी तरह रात जल्दी जल्दी बीत रही है ।
इस प्रकार यहाँ पर बहुत कुछ वक्तव्य ( काव्य आदि कहने लायक ) है जो परंपरा द्वारा जान लेना चाहिए - इस प्रकार शीता पंडिताका प्रबंध समाप्त हुआ ।
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