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प्रकरण ६०-६१] महाकवि धनपालका प्रबन्ध
[५१ विषम पथसे गिरते हुए इस वाष्प रूपी पानीयको, हे महाराज, तुम्हारे शत्रुओंकी स्त्रियाँ अविराम
भावसे स्तनरूपी दो कलशोंमें ढोया करती हैं। इस प्रकार काव्योंके पूरा पढ़े जानेपर [ आगे यह आधा काव्य मिला-] १०१. 'अहो ! पूर्वकृत कर्मोका परिणाम प्राणियोंके लिये सचमुच ही बड़ा विषम होता है।'
इस काव्यका उत्तरार्द्ध छि त प प्रभृति सैकड़ों पंडितोंके पूरा करनेपर भी ठीक नहीं जमता था तब राजाने धन पाल पंडितसे पूछा [ तो उसने अपनी प्रतिभाके बलसे यह यथार्थ पाठ कहा ]-"हरेहरे ! जो सिर शिवके सिर पर विराज रहे थे वे गृध्रोंके पैरोंसे लुण्ठित हो रहे हैं "।' यही उत्तरार्द्ध ठीक जमता है' इस प्रकार जब राजाने कहा तो पंडित बोला-'यदि पदबन्ध और अर्थ दोनों ही, श्री रामेश्वर प्रासाद की दीवालपर ये इसीप्रकार न हों तो, इसके बाद आजीवन मैं कविताका त्याग कर दूं।' उसकी इस प्रतिज्ञाके सुननेके साथ ही राजाने जहाजके यात्रियोंको उसी समुद्रमें गोता लगवाकर मंदिरको खोज निकालनेकी आज्ञा दी। ६ महिने बाद उसे ढूंढ निकाला और उसपर फिरसे मोमकी पट्टी लगा कर [ लेखकी नकल ली ] उसमें यही उत्तरार्द्ध निकला । यह देखकर [ राजाने ] उसके उपयुक्त पारितोषिक दिया। इस प्रकार, इस खण्ड प्रशस्ति के अनेक काव्य परंपराके अनुसार समझने चाहिये।
६०) एक बार राजाने सेवामें ढील-ढाल होनेका कारण पंडितसे पूंछा । उसने अपनी तिलक मंजरी [ नामक कथा ] को रचनाको व्यग्रताका कारण बताया । शीतकालको एक रात्रिके अन्तिम प्रहरमें राजाको कोई विनोद नहीं मिल रहा था । उसने पंडितको बुला कर, स्वयं उसकी उस ति ल क मंजरी कथाको पढ़ने लगा और पंडित उसकी व्याख्या करने लगा। राजाने उसके 'रस' के गिरनेके भयसे उसके नीचे सोनेकी थालीमें कच्चोलक ( कटोरा ) रखा और इस तरह [ बड़े चावके साथ ] समाप्त किया । उस अद्भुत काव्यसे चित्तमें चमत्कृत होकर राजाने कहा कि-' यदि मुझे इस काव्यका कथानायक बनाओ और विनीता के स्थानमें अवन्ती का नाम रखो, तथा श का व तार तीर्थकी जगह म हा काल को उल्लिखित करो तो जो माँगो वही मैं तुम्हें दूंगा।' राजाके ऐसा कहने पर उसने कहा कि-जिस प्रकार खद्योत और सूर्यमें, सरसों और सुमेरुमें, काच और काञ्चनमें, तथा धतूरे और कल्पवृक्षमें महान् अन्तर है उसी तरह तुममें और उनमें है । ऐसा कहता हुआ
१०२. हे दो मुँहवाली, निरक्षर, लोहेकी तराजू ! तुझे क्या कहूँ ? जो तू गुंजाके साथ सोनेको तौलते
समय पाताल नहीं चली गई। इस प्रकार जब पंडित झिड़क रहा था, तो राजाने उस मूल प्रतिको जलती आगमें इन्धन बना दिया। इस प्रकार वह द्विधा निर्वेद * होकर और द्विधा अवाङ्मुख x होकर अपने मकानके पिछले भागमें एक पुराने मञ्चपर जा बैठा और नीसासे डालता हुआ लंबा होकर सो गया। बालपंडिता ऐसी उसकी लड़कीने उसे भक्तिपूर्वक उठाकर स्नान-पान-भोजन आदि कराके, तिल क म अरी की प्रथम प्रतिके लेखनका स्मरण कर करके आधा ग्रंथ लिखा दिया। फिर पण्डितने उत्तरार्द्ध नया लिखकर ग्रंथ संपूर्ण किया।
[यहाँ पर इसके आगे Pb आदर्शमें निम्न लिखित कथन पाया जाता है-]
पंडितने ग्रंथ संपूर्ण किया और फिर रुष्ट होकर ना णा गाँव में चला गया। एक बार भोज की सभामें धर्म नामक वादी आया। उस समय वहाँ ऐसा कोई विद्वान् नहीं था, जो उसके साथ प्रतिवाद करनेका साहस करता।
* द्विधा निर्वेदका मतलब दोनों तरहसे निर्वेद हुआ। १ निर्वेद-खिन्न हुआ; २ निर्वेद-ज्ञानशून्य हुआ।
४ द्विधा अवाङ्मुख १=नीचा मुखवाला; २ वाणीशून्य मुखवाला । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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