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प्रबन्धचिन्तामणि
[ द्वितीय प्रकाश
तब भोज ने बहुत मानके साथ धनपाल को बुलाया । उसे आते सुन कर ही वह वादी भाग गया। लोगोंने हँसकर कहा-धर्मस्य त्वरिता गतिः = धर्मकी गति शीघ्र होती है । [ इस कहावतको उसने चरितार्थ किया ] राजाने सम्मान किया.... और वहाँपर योगक्षेमके निर्वाह ( गुज़र ) की क्या हालत थी सो पूछी। पंडित बोला
[ ६२ ] हे राजन्, इस समय हमारा और आपका घर समान है, क्योंकि दोनों ही पृथु कार्त स्वर पात्र ( १ गंभीर आर्तनादका पात्र, और २ विपुल सुवर्णपात्रवाला) हैं, दोनों ही भूषित निःशेष परिजन है ( १ अलंकारहीन परिजनवाला, और २ सारे परिजन जिसमें भूषित हैं, ऐसा ) हैं, और दोनों ही विलस रेणु गहना ( १ धूलिपूर्ण, और २ हाथियोंसे सुसज्जित ) हैं ।
( यहाँ P प्रतिमें निम्नलिखित और विशेष पंक्तियाँ पाई जाती हैं-)
एक बार उसने भोज की सभा में यह काव्य पढ़ा
[ ६९ ] हे धाराके अधीश्वर ! पृथ्वीके राजाओंकी गणनामें कौतूहलवान् होकर इस ब्रह्माने आकाश में खड़ियासे लकीर खींच खींचकर तुम्हारी ही ( अकेले की ) गणना की । वही रेखायें यह स्वर्गगा हो गई हैं और तुम्हारे समान पृथ्वी में अन्य भूमिघव (राजा) का अभाव होनेसे उसने उस खडियाको फेंक दिया वही यह हिमालय बना है ।
अन्य पंडित इस काव्य [ की अत्युक्ति ] पर हँसे । पर धनपाल ने कहा
[ ७० ] वाल्मीकि ने वानरोंसे आहृत ( मँगवाये गये ) पर्वतों से समुद्रको बँधवाया और व्यास ने अर्जुनके बाणोंसे । तथापि उनकी बातें अत्युक्ति नहीं समझी जातीं। हम तो कुछ प्रस्तुत विषय ही कहते हैं, तथापि लोग मुँह फाड़ कर हँसते हैं ! इसलिये हे प्रतिष्ठे, तुझे नमस्कार है ।
एक बार किसी पण्डितके यह कहनेपर कि - हे राजन्, महाभारतकी कथा सुनिये, उसपर परम आहेत पंडितने कहा
[ ७१] कानीन ( कुमारी कन्या के पुत्र = व्यास ) मुनि, जो अपनी भ्रातृवधूके वैधव्यका विध्वंस करने वाला है, उसकी रचना, जिसमें गोलक ( विधवा पुत्र ) के पाँच पुत्र पाण्डव नेता हैं, जो स्वयं कुंड ( जीवितपतिका स्त्रीके अन्य उपपतिसे उत्पन्न पुत्र ) है । कहा गया है कि ये पाँचो समान जाति के हैं ! इनका संकीर्तन करना भी यदि पुण्य-कर और कल्याण-कारक हो तो फिर पापकी दूसरी कौन सी गति होगी ?
६१) शोभन मुनि की ' शोभन चतुर्विंशति का स्तुति ' प्रसिद्ध ही है । ' इस समय क्या कोई [ नया ] प्रबंध आदि लिखा जा रहा है ? धनपाल ने कहा
"
राजाके यह पूछने पर
[ ७२ ] गलेमें उतरनेवाली गरम कांजीसे, जल जानेकी आशंकाके कारण सरस्वती मेरे मुँहसे निकल कर चली गई है । इसलिये वैरियोंकी लक्ष्मी के केश पकड़ने में व्यग्र हाथवाले महाराज ! मेरे पास अब कवित्व नहीं रहा ।
दिलवाई । राजाने जब यह पूछा कि
[ ७३ ] हे नरवर ! ये सौ तो दूध देती नहीं है और ना ही इन सौमेंसे एकको भी बछडा हैं । इन सौमेंसे बड़ी मुस्किलसे वीसामा खाती हुई २० गायें घर तक पहुँच सकती हैं !
इस प्रकार धनपाल ने [ उन बुड्ढी और बेकार गायोंकी ] बात कही ।
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राजाने [ प्रसन्न होकर दूध पीनेके लिए ]
' गायें मिली ? ' तो
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सौ गायें
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