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प्रबन्धचिन्तामणि
[ द्वितीय प्रकाश
५९) इसके बाद, धनपाल ने ऋषभ पञ्चाशिका स्तुति की रचना की। सरस्वतीकण्ठाभरण में उसकी बनाई प्रशस्ति-पट्टिका में किसी समय राजाने [ यह काव्य पढा-]
प्रासाद
९५. इसने [ अपने जन्म में ] पृथ्वीका उद्धार किया, शत्रुके वक्षःस्थलको विदारण किया, और बलिकी राजलक्ष्मी ( विष्णु के पक्षमें बलि नामक राजा और भोजके पक्षमें बलशाली राजा ) को आत्मसात् किया । इस प्रकार इस युवकने ये काम एक ही जन्ममें किये जो पुराण पुरुष (विष्णु) ने तीन जन्ममें किये थे ।
इस काव्यको पढ़कर उसके पारितोषिकमें एक सोनेका कलश दिया । उस प्रासादसे निकलकर उसीके द्वारके खंभोंपर मूर्तिमान् मदनको, जो रतिके साथ हस्तताल ( ताली ) दे रहा था, देखकर राजाने धनपाल से उनके हंसनेका कारण पूंछा । इस पर पंडित बोला
९६. यह है त्रिभुवन में संयमके लिये विख्यात ऐसा वह शिव, जो इस समय विरहकातर हो कर अपने शरीरमें ही स्त्रीको धारण किये है। इसीने हमें एक समय जीता था ! इस प्रकार प्रियाके हाथसे अपने हाथको बजाता हुआ और हंसता हुआ यह मदनदेव जयवान् हो रहा है ।
[ यहाँ D पुस्तक में " अन्नदिणे सिवभवणे ” “ दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा ० " " अमेध्यमश्नाति •
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पयःप्रदान० असत्युत्तमाङ्गे ” इत्यादि पद्य पाये जाते हैं। पर चूँकि वे यहाँ अप्रासंगिक हैं और Pb आदर्शके अनुसार इसके पहले ही उल्लिखित हो चुके हैं इसलिये फिर उद्धृत नहीं किये गये । ]
९७. पाणिग्रहण के समय शिवका जो भूतिभूषित शरीर पुलकित हुआ उसकी जय हो - जिस शरीरमें [ पुलकके बहाने ] भस्मावशेष मदन मानों फिर अंकुरित हुआ
है 1
इस प्रकारके तथा इसीतरहके, अन्य अन्य प्रसिद्ध और सिद्ध सारस्वतकवियों के काव्यों को कह कह कर जब धनपाल राजाको रञ्जित कर रहा था, उसी समय द्वारपालने एक व्यापारीका आना निवेदन किया । सभामें प्रवेश करके, राजाको नमस्कार कर, उसने मोमकी वनी पट्टीपर लिखे हुए कुछ काव्यों को दिखाया । राजाके उसके प्राप्तिस्थानके बोरमें पूछने पर वह बोला कि - ' मेरा जहाज अकस्मात् समुद्र में एक जगह रुक ओर जल लहरा जानने की इच्छासे
गया, जहाजियोंने खोज करके देखा तो वहाँ एक शिवमन्दिर मिला, रहा है पर भीतर पानीका अभाव है। उन्होंने उसकी एक दीवाल पर उसपर मोमकी पट्टी लगा दी । उसी के उभडे हुए अक्षर इस पट्टीपर हैं । राजाने जब यह सुना तो, उसपर [वैसी ही ] मिट्टीकी पट्टी लागवा कर, उसपर पड़े हुए उलटे अक्षरोंको पंडितोंसे पढ़वाया ।
९८. ' लड़कपन से ही, मेरी प्राप्तिके कारण ही यह उन्नतिकी परा कोटिको प्राप्त हुआ है, और इस
खिन्न होकर अपने
समय मेरी ही बातसे यह राजाका लड़का लजाता है।' इस प्रकार पुत्ररूपी यशसे अवलंब दिया जाकर वृद्ध ' गुणोंका समूह ' समुद्र के लिये चला गया ।
तीरपर तपस्या के
जिसके ऊपर चारों अक्षर देखकर उसे
९९. जो धनुर्धारी प्रतिद्वंद्वियोंकी स्त्रियोंको वैधव्य व्रत देनेवाला है ऐसे उस राजाके दिग्विजयके लिये उद्यत होनेपर और क्रुद्ध होकर प्रति दिशा में उसके भ्रमण करनेपर, और स्त्रियोंकी तो बात ही क्या स्वयं रति भी मारे डरके अपने पतिको, मदान्ध भ्रमरियोंका नील चोला धारण किये हुए पुष्पधनुष्य को [ भी हाथमें ] नहीं लेने देती ।
१००. चिन्तारूपी गंभीर कूपपर महाशोकरूपी चलती अरघट्ट ( घड़ारी ) परसे निःश्वास फेंककर अपने बड़ी बड़ी आँखरूपी घटीयंत्र से छोड़े हुए अश्रुधारको और नासिकाकी वंशप्रणाली के
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