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________________ प्रकरण ५८-५९ ] महाकवि धनपालका प्रबन्ध [४९ ५८) इसके अनन्तर एक बार राजा सरस्वती क ण्ठा भरण नामक प्रासादमें जा रहा था। उस समय धन पाल पंडितसे, जो सदा सर्वज्ञ-शासन (जैन धर्म ) की प्रशंसा किया करता था, पूछा कि 'सर्वज्ञ तो कभी एक बार हुए थे। पर अब भी उस धर्ममें क्या कुछ ज्ञानातिशय है ?' उसके ऐसा कहनेपर [धनपाल बोला-] 'अर्हत् विरचित (उपदिष्ट) अर्हन्त श्री चूड़ा म णि नामक ग्रन्थमें त्रैलोक्यके तीनों कालके वस्तु विषयके स्वरूपका परिज्ञान आज भी वर्तमान है।' उसके ऐसा कहनेपर राजाने पूछा कि 'हम लोग अभी इस तीन दरवाजेके मण्डपमें स्थित हैं। किस रास्ते होकर यहाँसे बहार निकलेंगे?' राजाको इस प्रकार शास्त्रपर कलंक लगानेको उद्यत होते देखकर उसने 'बुद्धि यह तेरहवीं मात्रा है' इस लोकोक्किको सत्य करते हुए, भोजपत्रपर राजाके प्रश्नका निर्णय लिख कर उसे मिट्टीके गोलेमें रख दिया, और उसे ताम्बूलवाहकको सोंपकर राजासे बोला कि ' महाराज, पधारिये !' राजाने अपनेको उसकी बुद्धिके जालमें फँसा समझा और सोचा कि इसने तीनमें से ही किसीका निर्णय किया होगा, इसलिये बढ़इयोंको बुलाकर मण्डपकी पद्मशिलाको हटवा दिया और उसी मार्गसे बहार निकला। फिर उस मिट्टीके गोलेको तोड़कर उसके लिखित अक्षरोंमें, निकलनेके लिये उसी मार्गके निर्णयको पढ़कर कौतुकसे चित्तमें चकित होता हुआ जैन धर्मकी ही प्रशंसा की। (यहाँ D पुस्तकमें निम्नलिखित पद्य अधिक पाये जाते हैं-) [६४ ] जो चीज़ विष्णु दो आँखोंसे, शिव तीनसे, ब्रह्मा आठसे, कार्तिकेय बारहसे, रावण बीससे, इन्द्र दस सौसे और जनता असंख्य नेत्रोंसे भी नहीं देख पाती, बुद्धिमान पुरुष उसीको एक प्रज्ञा(बुद्धि ) रूपी नेत्रसे स्पष्ट देख लेता है। (Pb आदर्शमें यहाँ निम्नलिखित एक और कथन अधिक पाया जाता है-) एक बार जलाश्रय (तालाव) के अच्छे-बुरे-पनके विषयमें पूछ हुई [तो पण्डितने, कहा-] [६५] सचमुच ही तालावोंमेंका ठंडा और चंद्रमाकी किरणोंसे श्वेत बना हुआ जल खूब पी करके प्राणियोंकी सारी तृष्णा नष्ट हो जाती है और वे मनमें प्रमुदित होते हैं, परन्तु जब सूर्यकी किरणें उसे सोख लेती है तो [ उसमेंके ] अनन्त प्राणी विनष्ट हो जाते हैं और इसीलिये मुनि लोग कुआँ बावड़ी आदिके बनानेके विषयमें उदासीन भाव प्रकट करते हैं। एक बार राजा अपने बनवाये हुए बहुत बड़े नये तालावके पास गया । वहाँ पण्डितसे पूछा कि यह धर्मस्थान कैसा है। धन पाल बोला [६६] तड़ागके बहाने यह आपकी [एक ] दानशाला है जिसमें सदा ही मछली आदि जलजन्तु __ अच्छी तरहकी रसोई है और जिस स्थानपर बक, सारस, चक्रवाक आदि [मत्स्य भोजी दान ग्रहण करनेवाले ] पात्र हैं; वहाँ कितना पुण्य होता होगा सो तो हम नहीं जान सकते । इससे राजा [ मनमें ] कुपित हुआ । नगरको आते समय बालिकाके साथ एक बुढ़ियाको वृद्धावस्थासे सिर धुनती हुई देखकर राजाने पूछा- यह सिर क्यों धुन रही है ! ' तब धनपाल बोला [६७ ] क्या यह नंदी है, या विष्णु ? क्या कामदेव है या चंद्रमा ? क्या विधाता है अथवा विद्याधर है ? क्या इन्द्र है, कि नल है, कि कुबेर है ? ना, ना, यह नहीं है, यह भी नहीं है, यह भी नहीं है, बिल्कुल यह नहीं, यह भी नहीं, वह भी नहीं, और वह भी नहीं, यह तो क्रीड़ा करने में प्रवृत्त ऐसा हे सखे ! स्वयं राजा भोज देव है। [ इसके सिरके धुननेका यह मतलब है-ऐसा कह कर ] इस श्लोकसे रुष्ट राजा को सन्तुष्ट किया । Jain Educatik३-१४ional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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