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४८] प्रवन्धचिन्तामणि
[द्वितीय प्रकाश [ इस जगह Pb आदर्शमें तो मूल ही में, पर B आदर्शके हाशियेपर निम्नलिखित कथोपकथन अधिक लिखा हुआ पाया जाता है।
इसके बाद जब राजा गौकी बन्दना करने लगा तो ध न पा ल भैंसको नमस्कार करता हुआ बोला[५७ ] अपवित्र वस्तु खाती है, विवेक-शून्य है, आसक्त होकर अपने पुत्रसे ही रति करती है,
खुराप्रसे और सींगसे जीवोंको मारती है | हे राजन् ! ऐसी यह गौ किस गुणसे वन्दनीय है। [५८ ] दूध देनेके सामर्थ्यसे अगर यह गौ वन्दनीय है तो, भैंस क्यों नहीं है ? भैससे इसमें थोड़ी
भी तो विशेषता नहीं दिखाई देती। [५९ ] अमेध्य भक्षण करनेवाली गायोंका स्पर्श पापको हरनेवाला है, चेतनाहीन वृक्ष वन्दनीय है,
छागका वध करनेसे स्वर्ग मिलता है, ब्राह्मणोंको खिलाया हुआ अन्न पितरोंको स्वर्गमें पहुँचता है, छल-कपटपरायण देवता आप्त पुरुष हैं, अग्निमें हवन किया हुआ हवि देवताओंको प्रीत करता
है-इस प्रकारकी स्पष्ट दोषयुक्त और व्यर्थ श्रुतियोंके वचनोंकी लीलाको कौन ठीक मान सकता है ! [६.] जिनका [प्राणी-] वध तो धर्म है, जल तीर्थ है, गौ वन्दनीय है, गृहस्थ गुरु है, अग्नि देवता
है, और ब्राह्मण पात्र है उनके साथ परिचय रखनेसे फल ही क्या हो!
एक बार, जिनपूजा करनेमें, दूमरोंसे पंडित (ध न पाल) की विशेष एकाग्रता जानकर राजाने फूलकी डाली देते हुए कहा कि देवोंकी पूजा करो। धन पाल शिव आदि देवताओंके स्थानों पर यों ही घूमकर जिन देवकी पूजा करके चला आया । चार पुरुषके मुँहसे राजाने सारा वृत्तान्त जानकर पूजाका हाल पूछा। उसने कहा कि महाराज ! जहाँ [ पूजाका उचित ] अवसर हुआ वहाँ पूजा की । राजाने पूछा-' अवसर कहाँ नहीं हुआ ?' पण्डित बोला-विष्णुके पास एकान्त कलत्र होनेसे; रुद्रके आधे शरीरमें पार्वती रहनेसे; ब्रह्माके यहाँ इस भयसे कि कहीं ध्यानभंग होनेके कारण शाप न दे दें; विनायकके यहाँ इसलिये कि वे थालीभर मोदक खा रहे थे, उनका स्पर्श मैंने रोका; चण्डिकाके यहाँ उनके शूलास्त्रसे संत्रस्त महिष मेरे सामने न आ जाय इस भयसे, हनुमानके यहाँ उन्हें कोपपूर्ण देखकर यह भय हुआ कि कहीं चपेटादान न कर बैठे; इस तरह, [ इन देवोंके स्थानमें ] कहीं भी अवसर नहीं हुआ। और भी [ शिवलिङ्गको देखकर तो मनमें विचार आया कि-]
[६१ ] इसके शिरके विना पुष्पमाला व्यर्थ है, और जब ललाट ही नहीं है तो पट्ट बन्ध कैसे
हो ? जिसके कान और आँख नहीं हैं उसके लिये गीत और नृत्य कैसे ? और जिसके पैर ही नहीं
उसको मेरा प्रणाम कैसा ! इत्यादि बातें कहने पर, राजाने कहा-'फिर अवसर हुआ भी कहीं ?' तब पंडितने 'प्रशमरसनिमग्न' और 'नेत्रे सारसुधा' इत्यादि ( वचन बोलकर ) और इसी प्रकारकी बातें कह कर अन्तमें कहा कि [ इस प्रकार] जैनालय में सदा अवसर रहता है, अतः वहीं मैने पूजा की।
[६२ ] इसके बाद-एक दूसरे दिन, शिवमन्दिरके द्वारदेशमें भंगीगणको देख कर राजाने धन पाल से पूछा कि-यह दुर्बल क्यों हैं ? वह बोला-[ भंगी शिवकी निम्न प्रकारकी विचित्र ] लीलायें देखकर सोचता रहता है कि
[६३ ] यदि यह ( शिव ) दिगंबर है तो इसको धनुष्यसे क्या काम है ? अगर धनुष्य है ही तो भस्म
क्यों ! यदि भस्म भी हुआ तो स्त्री क्यों ? और यदि स्त्री है तो फिर कामसे द्वेष क्यों है! इस प्रकारकी अपने स्वामीकी परस्पर विरुद्ध चेष्टाओंको देखकर [ यह भुंगी हैरान हो रहा है और इसी लिये ] शिराओंसे गाढ बँधे हुए अस्थि-शेष शरीरको धारण कर रहा है ।
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