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________________ प्रकरण ५७ ] महाकवि धनपालका प्रबन्ध [ ४७ ८८. अहो ! मैंने इसके पहले मोहवश, कुछ ही नगरोंके स्वामीका, जो शरीर दे देनेपर भी दुर्ग्रहणीय है, मति-दान करते हुए अनुसरण किया । इस समय ऐसे त्रिभुवनपति प्रभु मिल गये हैं जो बुद्धि-ही-से आराध्य हैं और जो अपना पद तक दे देनेवाले हैं । इससे उन प्राचीन दिनोंका बीत जाना खेदकारक हो रहा है । ८९. हे जिन ! जबतक मैंने तुम्हारा धर्म नहीं जाना था तबतक समझता था कि धर्म सब कहीं है । जिस प्रकार धतूरे के विषसे आतुर रोगीको सब कुछ सोना (पीतवर्ण) ही सोना दिखाई देता है; और कोई सफेद वस्तु नजर नहीं आती । [ ५५ ] घासके जैसे निःसार ऐसे उन करोडों श्लोकोंको पढ लेनेसे भी क्या होता है-यदि जिससे • दूसरेको पीडा न पहुँचाना ' इतना भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता । [ ५६ ] देशका मालिक [ तुष्ट होनेसे ] एक गाँव देता है, गाँवका मालिक एक खेत देता है, खेतका मालिक शिम्बिका ( सेम, छीमी ) देता है परन्तु सार्व ( सर्वज्ञ जिन ) तो सन्तुष्ट होकर अपनी सारी सम्पद दे देते हैं ! इत्यादि वाक्योंको पढ़ा करता । एक दिन राजाने ध न पाल को शिकार खेलनेके लिये साथ ले लिया । राजाने जब बाणसे मृगको विद्ध किया, तो उसके वर्णनके लिये धनपाल के मुँहकी ओर देखा । धनपाल बोला ९०. इस तरहका पौरुष रसातलको चला जाय । यह कुनीति है कि निर्दोष और शरणागतको मारा जाय । बलवान् भी जब दुर्बलको मारते हैं तो यह बडे दुःखकी बात है । जगत् अराजक हो गया । उसकी इस निर्भर्त्सनासे क्रुद्ध राजाके यह पूछने पर कि यह क्या बात है ९१. प्राणान्तके समय यदि तृण भक्षण करना चाहे तो वैरी भी छोड दिया जाता है, तो फिर ये पशु तो सदा तृण ही खाकर जीते रहते हैं, ये क्यों मारे जाते हैं ? राजाको इस कथन से अद्भुत कृपा उत्पन्न हुई । उसने धनुष्य बाणके भंगको स्वीकार करके आजीवन के लिये मृगयाका त्याग किया। बाद में नगरकी ओर जब लौट रहा था, तो यज्ञमण्डपके यज्ञस्तंभ में बँधे हुए छाग ( बकरे ) की दीन वानी सुनकर पूँछा कि यह पशु क्या कह रहा है ? इस पर धनपाल ने कहा कि सुनिये - ९२. हे साधो, मैं स्वर्गफलको भोगने के लिये तृषित नहीं हूँ, मैंने [ इसके लिये ] तुमसे प्रार्थना भी 1 नहीं की । मैं तो केवल तृण खाकर ही सन्तुष्ट हूँ । तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं । यदि तुम्हारे द्वारा यज्ञमें मारे हुए प्राणी निश्चय ही स्वर्गगामी होते हैं तो फिर अपने माता-पिता और पुत्रों तथा यज्ञ ( बलिदान ) क्यों नहीं करते ? • उसके इस वाक्य के अनन्तर जब राजाने कहा कि इसका क्या मतलब है ? तो फिर बोला कि - ९३. यूप ( यज्ञ ) करके, पशु मारकर और खूनका कीचड़ बना कर यदि स्वर्ग में जाया जाता है तो फिर नरक में कैसे जाया जाता है ? ९४. सनातन यज्ञ तो उसका नाम है, जिसमें सत्य तो यूप हो, तप ही अग्नि हो और अपने सारे कर्म समिध् ( काष्ठ ) हो, अहिंसाकी [ उसमें ] आहुति दी जाय । इस प्रकार, शुक संवाद में कहे हुए वचनोंको उसने राजाके सामने पढ़ा और [ ब्राह्मणोंको ] जो हिंसाशास्त्र के उपदेशक और हिंस्र प्रकृति हैं, ब्रह्मरूप में राक्षस बताते हुए, राजाको अर्हद्धर्म ( जैन धर्म ) की ओर प्रवृत्त किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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