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________________ ४६] प्रबन्धचिन्तामणि [ द्वितीय प्रकाश उस देशके उपासकोंद्वारा अत्यन्त अभ्यर्थनाके साथ गुरुको बुलानेपर, सकल शास्त्ररूपी समुद्रके पारको प्राप्त कर लेनेवाला वह शो भ न नामक तपोधन गुरुसे अनुमति लेकर वहाँ आया। धारा में प्रवेश करते ही, पंडित धन पाल ने, जो उस समय राजपाटिकामें [ राजाके साथ ] भ्रमणमें जा रहा था, उसे न पहचान कर, उपहासके साथ कहा-' गर्दभदन्त ( गधेके समान दाँतवाले ) भदन्त, तुमको नमस्कार !' इसपर उसने'कपिके वृषणके समान मुँहवाले मित्र, तुम्हें सुख हो !' [ इस प्रकार प्रत्युत्तर दिया । तब चमत्कृत होकर धन पाल ने सोचा कि मैंने तो दिल्लगीमें भी 'नमस्ते ' कहा और इसने तो ' मित्र तुम्हें सुख हो'] इतना ही कहकर अपनी वचन-चातुरीसे मुझे जीत लिया । फिर ध न पाल के यह कहने पर कि 'आप किसके अतिथि हैं ?' शो भ न मुनि ने कहा- हमें आपके ही अतिथि समझिये !' उसकी यह बात सुनकर एक विद्यार्थीके उन्हें अपने स्थानपर भेजकर वहीं ठहराया। स्वयं घर आकर धन पाल ने प्रिय आलापोंके साथ उसे सपरिकर भोजनके लिये निमंत्रित किया । पर वे तपोधन तो प्रासुक ( अनुद्दिष्ट ) आहार भोजी थे इसलिये उन्होंने निषेध किया। आग्रहपूर्वक जब उसने दोषका हेतु पूँछा तो कहा८५. मुनि म्लेच्छ कुलसे भी मधुकरी वृत्तिके साथ भिक्षा ग्रहण करे परन्तु बृहस्पतिके समान श्रेष्ठ कुलीन एक ही गृहस्थके वहाँ भोजन न करे। इसी प्रकार जैन धर्मके द श वै का लिक सूत्रमें भी कथन है८६. जो अनिश्रित हो कर मधुकरके समान नाना स्थानोंमेंसे अपना भिक्षापिण्ड प्राप्त करते हैं उन्हीं बुद्ध और दान्त भिक्षुओंको साधु कहते हैं । इस प्रकार, अपने धर्मसे और परधर्मसे भी, निषिद्ध ऐसे कल्पित आहारको त्याग करके हम लोग शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं । ध न पाल उनके चरित्रसे चकित होकर चुप हो रहा और उठकर स्नान करने चला गया। स्नानके आरम्भमें ही अचानक भिक्षाचर्या के लिये आये हुए उन दो मुनियोंको देखा। उन्हें एक ब्राह्मणी, रसोई तैयार न होनेके कारण, दही देने लगी। मुनियोंने पूछा कि दही कितने दिनोंका है ? तो धन पाल ने मज़ाक करते हुए कहा 'क्या कोई उसमें कीड़े पड़ गये हैं ?' ब्राम्हणांने जवाब दिया कि इसे दो दिन बीत चुके हैं । यह सुनकर दोनों मुनि बोले कि-हाँ कीड़े पड़ गये हैं ! यह सुनकर ध न पाल उसे देखने के लिये स्नानसे उठकर वहाँ आया। पात्रमें रखे हुए दहीके पास ही एक महावर (लाख) का ढेला रखा जिस पर उन जीवोंने चढ़कर उसे दहीके समान ही सफेद कर दिया । ध न पाल ने यह देखा और सोचा कि जैन धर्ममें जीवरक्षाकी ही प्रधानता है; और उसमें भी जीवोत्पत्ति विषयक ज्ञानका वैदग्ध्य [ विशिष्ट प्रकारका ] है । जैसा कि कहा है ८७. मूंग और उड़द इत्यादि द्विदल धान्य जो कच्चे गोरसमें पड़े तो उसमें त्रस ( द्विरिन्द्रियादि) __जीवोंकी उत्पत्ति होती है; और तीन दीनके बाद दहीमें भी जीवोंकी उत्पत्ति हो जाया करती है । यह बात एक जैन शास्त्रमें ही कही गई है । ऐसा निश्चय करके शो भ न मुनि के शुभोपदेशसे सम्यक् विश्वास पूर्वक उसने सम्यक्त्व ( जैन धर्म ) ग्रहण किया । [ इतने दिनोंके बाद अपने मिथ्यात्वको समझते हुए, शो भ न से ही पूँछा कि मेरे भाईको भी कहीं देखा है ? शो भ न ने वय, आख्या और गुण आदिमें अपने-ही-से उसकी तुलना की । इसपर उसने अनुमानसे समझा कि यही मेरा भाई है । यह निश्चय करके आनन्दाश्रु त्याग करते हुए उसे आलिंगन करके अपने लडकेको भेज कर उसके गुरुको भी बुलवाया।] स्वभावतः ही ध न पाल बडा बुद्धिमान था अतएव कर्म प्रकृति प्रभृति जैन-विचार-ग्रंथोंमें भी बडा प्रवीण हुआ । प्रति दिन सबेरे जिन पूजाके अन्तमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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