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प्रकरण ५६-५७]
भोज और भीमका प्रबन्ध
करावें [। और दान भी कौन देना चाहे, जब कि ] बिना दान दिये यह सूर्य भी अस्त हो जाता
है । [ इस प्रकार ] हे गृहिणी ! कहाँ जायें, और क्या करें? जीवन-विधि बड़ा गहन हो गया है। ८३. भूखसे कातर बना हुआ यह पथिक मेरा घर पूछते पूछते कहींसे आया है, सो हे गृहिणी!
क्या कुछ है कि इस बुभुक्षितको खानेको दिया जाय ?'-पत्नीने वचनसे तो 'है' यह कहालेकिन फिर · नहीं है' यह बात बिना अक्षरोंके ही, चंचल नेत्रोंसे टपकते हुए बड़े बड़े अश्रुबिन्दुओंस
सूचित की। ८४. हे प्राणों ! जाओ, याचकके व्यर्थ लौट जानेपर, चले जाओ; बादको भी तो जाना है; 'फिर ऐसा
साथी कहाँ मिलेगा !' 'फिर ऐसा साथी कहाँ मिलेगा ?'-इस वाक्यके बोलते ही मा घ पण्डितकी मृत्यु हो गई।
प्रातःकाल राजा भोज ने उस वृत्तान्तको सुनकर, श्री मा ल नगर में [ अनेक ] धनवान् सजातियोंके रहते हुए भी, जो ऐसा पुरुष-रत्न क्षुधापीड़ित हो कर मर गया, इसलिये उसने उस जातिका नाम 'भिल्लमाल' * ऐसा रख दिया।
__इस प्रकार श्री माघपण्डितका प्रबन्ध समाप्त हुआ।
महाकवि धनपालका प्रबन्ध । ५७) प्राचीन कालमें, समृद्धिसे विशाल ऐसी वि शा ला (उज यिनी) नामक नगरीमें, मध्य देशोत्पन्न संका श्य गोत्रीय सर्व देव नामक ब्राह्मण वास करता था। जैनदर्शनके संसर्गसे उसका मिथ्यात्व प्रायः शान्त हो गया था। उसके दो पुत्र थे जिनका नाम ध न पाल और शो भ न था । एक बार श्री वर्द्ध मा न सूरि वहाँ आये। गुणानुरागी होने के कारण सर्व देव ने उन्हें अपने उपाश्रयमें निवास कराया और अपनी अनन्य भक्तिसे उन्हें सन्तुष्ट किया। उन्हें 'सर्व ज्ञ-पुत्र क' जानकर गुम हो जानेवाली पूर्वजोंकी निधिके बारेमें पूछा। उन्होंने वचनचातुरीसे पुत्रोंका आधा हिस्सा माँग लिया । संकेत बतानेपर निधि मिली । जब वह आधा भाग देने लगा तो सूरिने दोनों पुत्रों से आधा हिस्सा माँगा। ध न पाल ने, जिसकी मति मिथ्यात्वके कारण अन्धी हो रही थी, जैन मार्गको निन्दा करते हुए नहीं कर दी। छोटे लड़के शो भ न पर कृपा-परायण हो कर, पिताने उसको देना नहीं चाहा । इसपर उसने अपनी प्रतिज्ञाके भंग होनेके पापको तीर्थमें जाकर प्रक्षालन करनेकी इच्छासे, तीर्थोके प्रति प्रस्थान करना निश्चित किया। पितृभक्त शोभ न नामक छोटे पुत्रने, उसको उस आग्रहसे रोककर, पिताकी प्रतिज्ञाका पालन करनेके लिये जैन दीक्षाव्रत ग्रहण कर स्वयं गुरुका अनुसरण किया। धन पाल समस्त विद्याओंका अध्ययन करके श्री भोज के प्रसाद-प्राप्त समस्त पंडित-मण्डलमें सुप्रतिष्ठ हुआ और फिर अपने सहोदरकी ईर्ष्यासे बारह वर्षतक अपने देशमें जैन दर्शनियोंका आगमन निषिद्ध कराया ।
* श्री माल नगरका दूसरा नाम भिल्ल मा ल भी है। वर्तमानमें वह स्थान इसी नामसे प्रसिद्ध है । श्रीमाली जातिके वैश्य और ब्राह्मण कुल इसी स्थानसे निकले हुए हैं। श्री मा ल का दूसरा नाम भिल्ल माल ऐसा कब और क्यों पड़ा इसका अन्य कोई दूसरा ऐतिहासिक उल्लेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। महाकवि मा घ की जन्मभूनि श्री माल थी यह बात कविके कथन ही से सिद्ध होती है, लेकिन उसकी मृत्युका जो यह करुण वृत्तान्त मेरुतुङ्गाचार्यने लिखा है और उसी प्रसंग परसे भोज राजा ने श्री माल का नाम भिल्ल माल रख दिया यह जो उल्लेख किया है, इसकी सत्यताके लिये और कोई सुनिश्चित प्रमाण जबतक प्राप्त न हो तबतक इस कथनको एक किंवदन्तीके रूपमें ही समझना चाहिए । माघ और भोज की समकालीनता भी सन्दिग्ध है। और कम-से-कम यह भोज प्रसिद्ध धारापति परमार वंशीय राजा भोज तो किसी तरह संभवित नहीं है। इसकी विशेष विवेचना
अगले ऐतिहासिक अवलोकनवाले खंडमें की जायगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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