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________________ ४४] प्रबन्धचिन्तामणि [द्वितीय प्रकाश कुछ दिनोंतक वहाँ रहकर ] स्वदेशगमनके लिये विदा माँगते हुए, अपने बनाये हुए नये भोज स्वामी मन्दिर के पुण्यको उसे समर्पण कर मा ल व म ण्ड ल को प्रस्थान किया। ___माघ के जन्म दिनके समय उसके पिताने ज्योतिषीसे जन्मपत्र बनवाया था । ज्योतिषीने उसमें लिखा था कि पहले तो इसकी समृद्धि बरांबर बढ़ती जायगी; पर बाद में ( पिछली अवस्थामें ) विभव नष्ट हो जायगा और चरणोंमें कुछ सूजन आ कर मृत्यु प्राप्त करेगा । माघ के पिताने अपने विभव-सम्भारसे ग्रहदशाका निवारण करना चाहा और यह सोचा कि मनुष्यकी आयु यदि सौ वर्ष की होगी, तो ३६ हजार दिन होंगे, एक नया कोश (निधि) बनवा कर उसमें उतनी ही संख्याके मणियोंका हार बनाकर रख दिया। इससे सैकडों गुनी अधिक और समृद्धि रख दी। लड़केका नाम मा घ रखा और अपने कुलके उचित शिक्षा दे कर और यह समझ कर कि मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, वह मर गया। इसके बाद माघ कुबेरकी भाँति विशाल समृद्धिसाम्राज्य पाकर, विद्वज्जनोंको उनकी इच्छाके अनुसार धन देने लगा। अपरिमित दानसे अर्थि-जनोंको कृतार्थ करते हुए और भोगकी विधिसे अपनेको अमानुषकी भाँति दिखाते हुए, उसने ' शिशुपाल वध' नामक महा काव्य बनाया। इस काव्यको देखकर विद्वानोंका मन चमत्कृत हो गया। अन्तमें पुण्य-क्षय होने पर जब उसका धन क्षीण हो गया और विपत्तिका समय आ गया, तो उसने अपने देशमें रहना अयुक्त समझ कर, अपनी स्त्रीके साथ मा ल व मण्डल में जा कर धारा नगरी में वास किया । राजा भोज के पास पत्नीको यह कह कर भेजा कि मेरा पुस्तक है उसे बंधक रख कर, राजाके पाससे कुछ भी द्रव्य ले आओ। स्वयं उसकी आशामें चिरकाल तक बैठा रहा । उधर भोज ने उसकी स्त्रीकी वह अवस्था देखकर सभ्रमके साथ उस पुस्तकको हाथमें लिया और उसकी शलाका निकाल कर उसे खोला तो उसमें पहला ही यह काव्य देखा ७९. कुमुदवनकी शोभा नष्ट हो गई और कमलोंका समूह शोभान्वित हो उठा । घूक हर्ष छोड़ रहा है और चकवा प्रीतिमान् हो रहा है । सूर्यका उदय हो रहा है और चन्द्रमाका अस्त ! अहो, दुर्भाग्यके खेलका परिणाम 'ही' विचित्र है ! काव्यका मर्म समझकर भोज ने कहा कि सारे ग्रंथकी तो बात ही क्या है, इसी एक काव्यके मूल्यके लिये पृथ्वी भी दे दी जाय तो वह कम है । समयोचित और अनुच्छिष्ट इस 'ही' शब्दके पारितोषिकमें ही एक लाख रुपये दे कर राजाने उसे विदा किया । वह भी जब वहाँसे चली तो याचकोंने उसे माघ की पत्नी समझकर माँगना शुरू किया। इस पर उसने वह सारा-का-सारा पारितोषिक उन याचकोंको दे दिया और स्वयं ज्यों की त्यों घर लौटी। उसने अपने पतिको, जिसके चरनमें कुछ सूजन हो आई थी, उस वृत्तान्तको कह सुनाया। इस पर मा घ ने यह कह कर उसकी प्रशंसा की कि-' तुम्हीं मेरी शरीर-धारिणी कीर्ति हो ।' इसी समय एक भिक्षुकको, जो उसके घरपर आया था, देखा । घरमें उसे देने योग्य कुछ न देखकर दुःखके साथ वह बोला ८०. धनतो है नहीं, और दुराशा भी मुझे छोड़ती नहीं । मैं बुरी तरहसे बहका हुआ हूँ और फिर त्यागसे हाथ भी संकुचित नहीं होता । याचना करना लघुताका कारण है और आत्महत्यामें पाप लगता है । अतः हे प्राणों ! तुम स्वयं चले जाओ तो अच्छा है। मुझे इस प्रकार दुःख देनेसे क्या होगा । ८१. दारिद्यकी आगका जो सन्ताप था वह तो सन्तोष रूपी जलसे शान्त हो गया; किन्तु दीन जनोंकी ___ आशा भंग करनेसे जो [ सन्ताप ] पैदा हुआ है, यह किससे शान्त होगा । ८२. अकालमें भिक्षा कहाँ ? बुरी अवस्थावालोंको ऋण क्योंकर मिले ? भू-स्वामियोंसे काम क्योंकर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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