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________________ प्रकरण ५६ ] महाकवि माघका प्रबन्ध [ ४३ 3 पुनः एक बार भीम के चित्तमें कौतुक उत्पन्न हुआ । उसने एक बार डामर के हाथमें अपनी मुद्रासे मुद्रित ( मुहर किया हुआ ) लेख दिया और हाथमें भेंटकी सामग्री देकर उसे मालवा में भेजा । उसने उस भेंटके साथ वह लेख राजाको दिया । राजाने जब खोलकर पढ़ा तो उसमें लिखा मिला कि -' इसको आप शीघ्र ही मार डालिये ।' तब विस्मयके साथ राजाने पूछा- ' अजी, इसमें यह क्या लिखा है ? तब उस शीघ्रबुद्धिने कहा - ' महाराज ! मेरी जन्म-पत्रिकामें ऐसा लिखा है कि जहाँ इसका रुधिर पड़ेगा वहाँ बारह वर्षतक अकाल पड़ेगा । यही जानकर भी मने, स्वदेशके विनाशसे भीत होकर, प्रच्छन्न लेखके साथ मुझे यहाँ भेजा है । ऐसी स्थिति होनेपर आप अपनी रुचि के अनुसार करें । ' उसके ऐसा कहनेपर राजाने कहा - ' मैं अपने देशकी प्रजाको अनर्थ में नहीं पड़ने दूँगा।' इसके बाद, उसका सम्मान करके उसे विदा किया और वह अपने देशमें आया । उसकी बुद्धिके कौशलसे चमत्कृत होकर भीम उसे बहुत मानने लगा । I * महाकवि माघका प्रबन्ध | ५६) इसके बाद, भोज राजा माघ पंडितकी विद्वत्ता और पुण्यवत्ताको सदा सुनकर उसके दर्शन की उत्सुकतासे अनेक राजकीय आदेश बारंबार भेजकर श्री माल नगर से जाड़े के दिनों में उसे अपने यहाँ बुलाया और अत्यन्त मानके साथ भोजनादिसे उसका सत्कार किया । बाद में राजोचित विनोदोंको दिखाकर और रातकी आरतीके अनन्तर अपने निकट ही, अपने ही समान पलंगपर सुलाकर, उसे अपनी निजकी शीतरक्षिका ( रजाई, लिहाफ़ ) ओढने दी और चिरकाल तक उसके साथ प्रिय आलाप करता हुआ सुखपूर्वक सो गया । प्रातःकाल मांगल्य तुर्यनादसे जब राजाकी नींद खुली तो माघ पंडितने घर जानेके लिये बिदा माँगी । राजाने विस्मित होकर अगले दिनके भोजन आच्छादन आदिके सुखकी बात पूँछी । उसने कहा - ' उस अच्छेबुरे अन्न की बात रहने दीजिये ।' और कहा कि शीतरक्षिका ( रजाई ) के भारसे तो मैं थक-सा गया । राजाने अपना खेद प्रकट करते हुए किसी प्रकार जानेकी अनुज्ञा दी । नगरके उपवन तक राजाने अनुगमन किया । माघ पंडितने भी कहा कि कभी अपने आगमनसे मुझे भी धन्य करें 1 राजाकी अनुज्ञा लेकर माघ पंडित अपने स्थानपर आया । उसके बाद, कितनेएक दिन बीतनेपर, भोज राजा उसकी विभवसामग्री देखने की इच्छा से श्री माल नगर में आया । माघ पंडितके द्वारा अगवानी आदिसे यथोचित सत्कृत होकर वह अपनी सारी सेनाके साथ उसकी घुड़साल में ठहरा । फिर वह अकेला माघ पंडितके महलमें गया । वहाँ उसने सञ्चारक भूमि ( महलमें जानेकी पगडंडी ) को काचसे जड़ी देखी । स्नान करने के बाद, देवताके मन्दिर में जानेपर, वहाँकी भूमिपर, जिसका गच मरकतका था, शैवाल सहित जलकी भ्रान्तिसे धोती और चादरको समेटने लगा । तब पुरोहितने उसका स्वरूप बतलाया । फिर देवताकी पूजा की। बाद जब मंत्रावसर समाप्त हुआ तो, भोजनके समय आई हुई रसोईका आस्वादन किया । ऐसे ऐसे व्यंजनों और फलोंको देखकर, जो उस काल और उस देशमें नहीं होते थे, वह चित्तमें बड़ा विस्मित हुआ । संस्कार किये दूध और चावलकी रसोईका आकण्ठ उपभोग किया । भोजन के अन्त में चन्द्रशालापर आरोहण करके, ऐसे ऐसे काव्यों, कथाओं, इतिहासों और नाटकों को देखा, जिन्हें इसके पहले कहीं देखा या सुना नहीं था । जाड़े के दिनोंमें भी उसे अकस्मात् उग्र ग्रीष्म ऋतु हो जानेकी भ्रान्ति हुई । उस समय सफेद स्वच्छ वस्त्र पहने, हाथमें तालके पंखे लिये हुए अनुचर उसको हवा करने लगे । उसके वस्त्रों में सुन्दर चन्दन लेप दिया गया और उस रातको उसने क्षणभरकी नई बिता दी । सवेरे जब शंखके नादसे राजाकी नींद खुली तो माघ पंडितने शीतकाल में अकस्मात् कैसे ग्रीष्म ऋतु उतर आई इसका स्वरूप समझाया । [ इस प्रकार प्रत्येक क्षण विस्मयके साथ बिताता हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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