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________________ भोज और भीमका प्रबन्ध भोजकी गूजरातके राजा भीमके प्रति प्रतिस्पर्धा । ४५) इसके बाद, एक समय, संधिपत्रके होते हुए भी, सन्धिमें दोष उत्पादनके विचार से भोज राजा ने गूर्जर देश की बुद्धिमत्ताका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे अपने सान्धिविग्रहिकके हाथ, भीम के पास यह [ प्राकृत ] गाथा लिख भेजी ६२. क्रीडा मात्रमें जिसने हाथीका कुम्भस्थल विदीर्ण किया हो और चारों दिशामें जिसका प्रताप फैल रहा हो उस सिंहका, मृगके साथ न तो विग्रह ही [ शोभता है ] और न सन्धि ही [ रहती है ] । भीम ने इस गाथाका उत्तर देनेके लिये सब महाकवियों से गाथा माँगी । पर उनकी बनाई सब गाथाओंको निःसारार्थक देखकर वह सोच में पड़ गया। उसी समय नगर मेंके जैन मन्दिरके अन्दर नाचने के लिये सज्ज बनी हुई नर्तकीको खंभे के पास खडी हुई देखकर मंत्रीने वहीं बैठे हुए किसी आचार्य - शिष्य से स्तंभ वर्णन के लिये कहा । वह बोला प्रकरण ४५-४६ ] [ ३७ [ ४८ ] हे स्तंभ ! तुम जो इस मृगनयनी नवयौवनाकी, ककणाभरण आदिसे सज्जित बाहुलतासे [वेष्टित होकर भी ] न स्वेद-युक्त होते हो, न हिलते हो और न काँपते हो; सो सचमुच ही तुम पत्थर के बने हो यह निश्चित होता है । [ आचार्य-शिष्य की विद्वत्ताकी यह बात जब मंत्रीने राजासे कही तो राजाने [ उसके गुरु ] आचार्यको - बुलाकर उस विषय में पूछा ६३. विधाताने भीम को अन्धक के * पुत्रोंको मारनेके लिये ही निर्माण किया है । जिस भी मने सौ [ अन्धक पुत्रों ] को कुछ नहीं गिना उसके सामने तुझ अकेलेकी क्या गणना है ! " इस प्रकार गोविन्दाचार्य की बनाई हुई चित्तको चमत्कृत कर देनेवाली इस गाथाको दूतके हाथ भेजकर, सन्धिके दोषको दूर किया । ४६) बादमें किसी एक रातको, जाड़ेके दिनोंमें, राजा जब वीरचर्या में घूम रहा था, तो किसी मन्दिर के सामने, किसी पुरुषको यह पढ़ते सुना ६४. मेरा पेट भूखसे व्याकुल है, ओंठ फट गये हैं, ऐसी अवस्था में फूंकते फूंकते आग ठंडी हो गई है, चिन्ताके समुद्र में डूब रहा हूँ, शीतसे माषके फलकी तरह सिकुड़ गया हूँ । निद्रा अपमानिता स्त्रीकी भाँति कहीं दूर चली गई है; और सत्पात्रमें दी गई लक्ष्मीकी भाँति रात भी खतम नहीं हो रही है । यह सुनकर रात बिताकर सवेरे उसे बुलाकर पूँछा - ' किस प्रकार तुमने उपद्रव सहन किया ? ' । ' सत्पात्र में दी गई लक्ष्मी ' इत्यादि कथनकी ओर [ वह बोला- ] ' महाराज ! मैं खूब गाढ़े तीन वस्त्रोंसे जाड़ा काटता हूँ ।' राजाने पूछा कि तुम्हारे वे तीन वस्त्र क्या हैं ? तब उसने फिर कहा ६५. रात में घुटने, दिन में सूर्य और दोनों शामको आग, इस प्रकार हे राजन् ! घुटने, सूर्य और आगके बलपर मैं शीत काटता हूँ । रात्रिशेषमें शीतका अत्यन्त संकेत करके उसने कहा था । जब उसने इस प्रकार कहा तो राजाने उसे तीन लाखका दान देकर सन्तुष्ट किया । ६६. तुमने अपनी आत्माको धारण करके बलि, कर्ण आदि उन त्यागमूर्ती धनवान पुरुषोंको मुक्तकर * यहाँपर ' अन्धक ' इस शब्दपर श्लेष है। कौरवोंका पिता धृतराष्ट्र अन्धा था इसलिये उसको अन्धक कहा है । भोजका पिता सिंधुल भी अन्धा था इसलिये उसका विशेषण भी अन्धक सार्थक है । Jain Education-International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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