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________________ प्रकरण ४३-४४ ] भोज और भीमका प्रबन्ध [ ३५ ४३) इसके बाद, एक बार, जब वह बही [ राजाके आगे ] बांची जाने लगी तो राजा अपनेको बड़ा उदार दानी मानकर घमंडरूपी भूतसे आविष्ट होने की भाँति ५३. मैंने वह किया जो किसीने नहीं किया, वह दिया जो किसीने नहीं दिया, वह साधना की जो असाध्य थी; इसलिये [ अब ] हमारा चित्त दुःखित नहीं है । इस प्रकार वारंवार अपने भाग्यकी प्रशंसा करने लगा । तब किसी पुराने मंत्रीने, उसके अभिमानको दूर करने की इच्छासे, श्री विक्रमादित्य की धर्म-वही राजाको दिखाई । उसके ऊपरवाले विभाग में शुरू में ही पहला काव्य इस प्रकार था ५४. तुम्हारे मुखकमलमें 'सरस्वती' वसती है, ' शोण ' तो तुम्हारा अधर ही है, और रामचन्द्र के वीर्यकी स्मृति दिलाने में पटु ऐसी तुम्हारी दक्षिण भुजा 'समुद्र' है । ये वाहिनियाँ (सेना और नदियाँ) सदा तुम्हारे पास रहती हैं; क्षणभर भी तुम्हारा साथ नहीं छोड़तीं; और फिर तुम्हारे अंदर ही यह स्वच्छ मानस ( मानसरोवर, मन ) है; तो फिर हे राजन्, तुम्हें जलपानकी अभिलाषा क्यों हो ? इस काव्यके पारितोषिक में राजाने इस प्रकार दान दिया था ५५. आठ करोड़ स्वर्णमुद्रा, ९३ तुला मोती, मदमत्त भौरोंके कारण क्रोधसे उद्धत ऐसे ५० हाथी, चलने में चतुर ऐसे दस हजार घोड़े और सौ वेश्यायें; - यह सब जो पाण्ड्य राजाने दण्डके स्वरूप में विक्रम राजाको भेट किया था; वह उसने उस वैतालिकको दानमें दे दिया । इस प्रकार उस काव्य के अर्थको जानकर, विक्रम की उदारतासे अपने सारे गर्व सर्वस्वको पराजित मानकर, उस बही की पूजा करके उसे यथास्थान रखवा दिया । ४४) एक समय, प्रतीहारने आकर सूचित किया- ' महाराज के दर्शनके लिये उत्सुक ऐसा एक सरस्वती - कुटुम्ब द्वारपर खडा है । ' शीघ्र प्रवेश कराओ' राजाकी ऐसी आज्ञा होनेपर पहले उसकी दासीने प्रवेश करके कहा ५६. बाप भी विद्वान् है, बापका बेटा भी विद्वान् है, माँ भी विदुषी है, माँकी लड़की भी विदुषी है; जो उनकी बिचारी कानी दासी है वह भी विदुषी है; इसलिये हे राजन् ! मैं समझती हूँ कि यह सारा कुटुम्ब ही विद्याका क है I उसके इस हास्यकर वचनसे राजाने जरा हँसकर, उनमेंके सबसे बड़े पुरुषको बुलाया और यह समस्या दी - ' असारसे सारका उद्धार करना चाहिये । ' [ उसने इसकी पूर्ति इस तरह की - ] ५७. धनसे दान, वचनसे सत्य, और वैसे ही आयुसे धर्म और कीर्ति तथा शरीरसे प्रकार असारसे सारका उद्धार करना चाहिये । परोपकार- इस १ किसी समय विक्रम राजाने अपने नोकरसे पीनेको पानी मांगा तब पासमें बैठे हुए किसी कविने यह पद्य बनाया और राजाको सुनाया । इसमें, सरस्वती, शोण, दक्षिण समुद्र, मानस और वाहिनी इतने शब्दोंपर श्लेष है । ये सब शब्द ार्थक हैं, जिनमें एक अर्थ प्रसिद्ध जलाश्रय वाचक है और दूसरा अन्यार्थ वाचक है । यथा-सरस्वती = १ नदी, २ विद्यादेवी; शोण = १ नद, २ लालवर्ण; दक्षिण समुद्र = १ महासागर, २ मुद्रावाला हाथ; वाहिनी = १ सेना, २ नदी; मानस = १ सरोवर, २ मन । २ इस पद्यमें जो सामग्री वर्णित की गई है वह विक्रम राजाको दक्षिणके पाण्ड्य राजाने दण्डके रूपमें दी थी और उसी सामग्रीको विक्रमने किसी वैतालिक यानि स्तुतिपाठक कविको, उक्त श्लोकके कहने पर पारितोषिकके रूपमें-दान में दे दिया; यह इसका तात्पर्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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