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________________ ३४] प्रबन्धचिन्तामणि [ द्वितीय प्रकाश १८. सूर्यके अस्त होनेके पहले जो धन याचकोंको नहीं दे दिया गया, मैं नहीं जानता, वह धन प्रातःकाल किसका होगा। इस प्रकार अपना ही बनाया हुआ यह श्लोक जो मेरे कण्ठका आभरण-सा होगया है उसको इष्ट मंत्रकी तरह जपता हुआ, हे मंत्रिन् ! मैं आप जैसे प्रेतके समान [ लोभी ] पुरुषसे कैसे ठगा जा सकता हूँ। ४१) एक दूसरे अवसरपर, राजा राजपाटिकामें घूमता हुआ नदीके किनारे जा खडा हुआ। वहाँ सिरपर काठका भारा उठाए हुए और पानीको लाँघ कर आते हुए किसी दरिद्री ब्राह्मणको देखा। उससे उसने पूछा कि ४९. ' कितना है पानी ब्राह्मण !' उसने कहा-'घुटने तक हे राजा।' राजाने फिर पूछा-'तेरी अवस्था ऐसी क्यों ? ' वह बोला-'आप जैसे सब कहीं नहीं!" उसके इस वाक्यको सुनकर राजाने जो पारितोषिक उसे दिया, मंत्रीने धर्म-खातेमें इस प्रकार लिख रखा ५०. " जानुदप्न" ( जानुतक ) कहनेवाले ब्राह्मणको सन्तुष्ट होकर भोजने एक लाख, फिर एक लाख, फिर एक लाख; और उसपर दस मतवाले हाथी; इस प्रकार दान दिया। ४२) एक दूसरी बार रातमें, आधीरातको राजाकी अचानक नींद खुली । उस समय आकाशमण्डलमें चंद्रमा नया ही उदित हुआ था। उसे देखकर वह अपने विद्यारूपी समुद्रके उठते हुए तरंगके जैसा यह काव्याध बोलने लगा ५१. यह चंद्रमाके भीतर, बादलके टुकड़ेकी-सी जो लीला कर रहा ह लोग उसे शशक (खर__गोश ) कहते हैं, किन्तु मुझे वह ऐसा नहीं मालूम देता। राजाके वारंवार ऐसा कहनेपर, कोई चोर जो उसी समय सेंध मारकर, कोशगृहमें घुसा था, अपने प्रतिभाके वेगको रोकनेमें असमर्थ होकर बोल उठा ' मैं तो चंद्रमाको ऐसा समझता हूँ कि तुम्हारे शत्रुओंकी विरहाक्रान्त तरुणियों (स्त्रियों ) के कटाक्षरूपी ___ उल्कापातके सैकड़ों व्रणके चिन्हसे वह अंकित हो रहा है।' उसके ऐसा बोल पडने पर, अंगरक्षकोंने उसे पकड लिया और कारागारमें बंद कर दिया। इसके बाद प्रातःकाल, सभामें ले आये हुए उस चोरको राजाने जिस पारितोषिकसे पुरस्कृत किया, उसे धर्म-खाताके काममें नियुक्त अधिकारीने इस प्रकार लिखा ५२. उस चोरको, जिसे मृत्युका भय लगा हुआ था, राजाने ऊपर लिखे दो चरणोंके लिये प्रसन्न होकर यह दान दिया-दस करोड़ सुवर्ण मुद्रायें और ऊपर आठ हाथी, जो दाँतोंके आघातसे पर्वतका भेदन करते थे और जिनके मदसे मुदित हो कर भौंरे गुञ्जारव किया करते थे। [फिर एक बार खिड़कीकी जालीसे आते हुए चंद्रमाको देख कर बोला[४७ ] हे सुभ्रु ! खिड़कीकी जालीमेंसे प्रवेश करनेके कारण जिसकी चाँदनी खंड खंड हो गई है, वह चंद्रमा, तुम्हारे वक्षःस्थल पर आकर विराज रहा है । उसी समय घरमें प्रवेश करनेवाले चौरने कहा 'यह चन्द्रमा मानों तुम्हारे स्तनके संगकी आसक्तिके वश होकर आकाशमेंसे झंपापात कर नीचे कूदा है और दूरसे गिरनेके कारण खंड खंड हो गया है।' इस चोरको भी उसी तरहका दान दिया गया और उसे धर्म-बहीमें लिख लिया गया।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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