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________________ प्रकरण ३९-४२ ] भोज और भीमका प्रबन्ध ७. भोज और भीमका प्रबन्ध । [ ३३ ३९) इसके बाद [सं० १०७८ के साल ] जब माल व मण्डल में श्री भोजराज राज्य करता था. तब इधर गूर्जर भूमि में चौ लुक्य चक्रवर्ति भी म पृथिवीका शासन करता था । एक रात्रिके अन्तमें राजा भोज ने, अपने चित्तमें लक्ष्मीकी अस्थिरताको विचारते हुए और अपने जीवनको भी तरंगकी भाँति चञ्चल समझते हुए, प्रातः कृत्यके बाद, दानमण्डपमें बैठकर नौकरोंके द्वारा याचकों को बुला, यथेच्छ सुवर्ण टंकोंका ( सोनेकी मोहरोंका ) दान देना प्रारंभ किया । ४०) इस पर, रोहक नामक उसके मंत्रीने, खजानेका नाश होता देख, राजाके औदार्य गुणको दोष समझते हुए उसे रोकनेके लिये अन्य उपायोंसे समर्थ न होकर, एक दिन सर्वावसर ( न्याय सभा) के उठ जाने बाद सभामण्डपके भारपट्ट पर खड़ियासे इन अक्षरोंको लिख दिया-आपत्ति कालके लिये धनकी रक्षा करनी चाहिए । प्रातः काल यथा समय राजाने उन अक्षरोंको पढ़ा। सभी परिजनोंमेंसे किसीने भी जब उस कार्य करनेका स्त्रीकार नहीं किया तो राजाने उसके साथ यह लिख दिया - भाग्यवानको आपत्ति कहां है । इस पर मंत्रीने जबापमें लिखा कि-कभी दैव कुपित हो जाय तो ? | इस पर राजाने फिर उसके सामने लिख दिया कि - [ तत्र तो ] सञ्चित भी विनष्ट हो जायगा । इससे निरुत्तर होकर उस मंत्रीने अभय वचन माँगकर उस कथनको अपना लिखा बताया। बाद में राजाने कहा, कि मेरे मनरूपी हाथीको ज्ञानरूप अंकुशसे वशमें रखने के लिये महामात्र के समान ५०० पण्डितोंका यह समूह यथेच्छ रूपसे अपना अपना ग्रास प्राप्त किया करें ' । राजाने अपने जीवनका ध्येय सूचित करनेवालीं ऐसी चार आर्याओं को अपने कङ्कणपर खुदवाई जिनका अर्थ यह है ૨ ४४. यही उपकार करनेका अवसर है; जब तक कि स्वभावतः ही चञ्चल ऐसी यह सम्पत्ति विद्यमान है । फिर वह विपत्ति कि जिसका उदय भी निश्चित है, उसके आनेपर उपकार करनेका अवसर कहाँ रहेगा ? | ४५. हे पूर्णिमाके चन्द्रमा ! अपने किरण समूहकी समृद्धिसे अभी आज इस सारे भुवनको उज्ज्वल कर दे । [ फिर यह मौका न मिलेगा, क्यों कि ] निर्दय विधाता चिरकाल तक किसीका सुस्थिर होना सह नहीं सकता । ४६. ऐ सरोवर ! दिन और रात याचकोंका उपकार करनेका यही अवसर है । यह जल तो उन पुराने बादलों के उदय होनेपर फिर सर्व-सुलभ ही है । ४७. ऐ किनारे के वृक्षोंको गिरा देनेवाली नदी ! यह सुदूर तक उन्नत दिखाई देनेवाला पानीका पूर तो कुछ ही दिनों तक ठहरेगा; पर यह एक पातक ( पेड़का गिरा देना ) तो चिरस्थायी होकर रहेगा । और फिर - १ इसका मतलब यह है कि राजा भोजने अपने पास ५०० पंडित रक्खे थे जिनके निर्वाहके लिये राज्यकी ओरसे स्थायी प्रासका प्रबन्ध कर दिया गया था। २ पुराने जमाने में यह एक प्रथा थी कि - विचारशील लोग, जिस किसी सद्विचारको अपना जीवन-ध्येय बना लेते थे उसका सतत स्मरण रहा करे इसलिये उस विचारके सूत्रको अपने हाथ के कंकणपर उत्कीर्ण करा ( खुदा ) लेते थे और उसका सदैव अवलोकन किया करते थे । वस्तुपाल आदि अन्य भी महापुरुषोंने अपने जीवनसूत्र कंकणपर खुदवा रक्खे थे। Jain Educatonmational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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