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प्रकरण ३७-३८ ]
मुखराज प्रबन्ध [४१] ऐ यन्त्र, +चरखा ! तुम इसलिये न रोओ कि मैं इस स्त्री द्वारा भमाया (घुमाया) जा रहा हूँ।
ये तो कटाक्ष फैंक कर ही ( मनुष्योंको ) घुमाया करती हैं, तो फिर हाथसे खींचने पर की बातका
तो कहना ही क्या है ! [४२] मुञ्ज कहता है कि, हे मृणालवती! जो बुद्धि पीछे उत्पन्न होती है, वह अगर पहले ही हो
जाय तो कोई विघ्न आकर घेर नहीं सकता। [४३ ] जो राजा दशरथ देवताओंके राजा (इन्द्र) के तो मित्र थे, और यज्ञ पुरुषके तेजःअंशके
समान रामके पिता थे, वही पुत्रविरहके दुःखसे शय्यापर ही पडे पडे मर गये, उनका शरीर जलते हुए तेलके मटकेमें रक्खा गया और बहुत दिनोंके बाद उसका संस्कार हुआ । हाय, कर्मकी
गति टेढ़ी है ! [४४ ] सिरपर विधु x( चंद्रमा और विधाता ) के वक्र हो कर आ बैठने पर, शिवके सदृश जो सब
देवताओंके गुरु हैं उनका भी कैसा हाल हो गया है सो तो देखो। उनके पास अलंकारमें तो मात्र नर-कपाल है जिसे देखते ही डर लगता है, परिवारमें जिसका सारा शरीर छिन्न भिन्न है ऐसा एक भंगी है, और सम्पत्तिमें एक ढलती ऊमरका बूढ़ा बैल है ! फिर हम लोगोंके सिरपर जो विधि
यानि विधाता वक्र हो कर आ बैठे तो क्या क्या हाल न हो।
इस प्रकार चिरकाल तक भिक्षा मँगवाने बाद राजाकी आज्ञासे मुख को वध्य-भूमिमें ले गये । वहाँ पहले पहननेका उसका वस्त्र ले लिया गया । तब वह बोला
[१५] यह कमर जो हमेशां मतवाले हाथीके ऊपर ही बैठकर चलनेवाली थी, जो सदा विचित्र सिंहासनपर ही बैठती थी और जो अनेक रमणियोंके जघनस्थल पर लालित होती थी, वह
आज इस प्रकार विधिवश बिना वस्त्रकी कर दी गई !
तब मुझ ने पूछा कि-' किस प्रकार मुझे मारोगे ?' [ उत्तर मिला ] 'वृक्षकी शाखामें लटका कर ।' तब वह बोला[४६ ] कहाँ तो यह महावनमें रहा हुआ वृक्ष है और कहाँ हम संसारका पालन करनेवाले राजाओंके
पुत्र ! अहो, कभी न घट सकनेवाली बातको घटाने में पटु ऐसा यह विधिका चरित्र बड़ा
दुरबोध है! उन्होंने कहा कि ' इष्ट देवताको याद करो' इस पर वह बोला४१. इस यशके पुंजके समान मुख के गत होनेपर, लक्ष्मी है सो तो विष्णुके पास चली जायगी और
वीरश्री है वह वीर मन्दिरमें चली जायगी; किन्तु [ और कोई आश्रयस्थान न मिलनेसे ] सरस्वती है सो निराश्रित हो जायगी।
+ स्त्री जब चरखा चलाती है तब उसमेंसे रूँ...ऊँ...इस प्रकारकी अवाज निकलती है । उस अवाजपर यह किसीकी अन्योक्ति है । स्त्री अपने हायसे चरखेको खूब घुमा रही है इसलिये मानों चरखा रो रहा है। कवि कहता है कि, भाई चरखा तूं रो मत ! स्त्रीके तो कटाक्ष मात्रसे भी मनुष्य घूमने लगते हैं, तो फिर तुझे तो यह अपने हाथसे फिरा रही।
- यहांपर 'विधी व मूर्ध्नि' इस वाक्यांश पर श्लेष है। संस्कृतमें 'विधु' शब्द चंद्रका वाचक है और 'विधि' विधाताका । इन दोनों शब्दोंका सप्तमी विभक्तिके एक वचनमें 'विधौ' ऐसा रूप बनता है। शिवके पक्षमें विधुके वक्र होनेपर; और दूसरे पक्षमें विधिके वक्र होनेपर' ऐसा अर्थ घटाया गया है।
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